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Saturday 18 July 2020

समझौता ज़िन्दगी और मौत का (लघु कथा)

बात सन १९२० की है। कार्तिक का महीना था। गुलाबी सर्दी पड़ने लगी थी।पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बसे छोटे से गांव गिराहू में, सभी किसान दोपहर बाद खेतों से थके-हारे लौटे थे। बुवाई का समय निकला जा रहा था; सभी व्यस्त थे। पर सब लोग पंचों की पुकार पर पंचायत के दफ्तर में इकट्ठे हो गए थे। बस पंचों के आने का बेसब्री से इंतज़ार हो रहा था। 

एक ओर गाँव की औरतें होने वाली दुल्हन निम्मो को जबरन पंचायत के दफ्तर में ले आयी थी और दूसरी तरफ कुछ आदमी होने वाले दूल्हे राम बिलास का हाथ पकड़ कर बाहर पेड़ के नीचे खड़े थे। वह भी इस शादी के नाम पर हिचकिचा रहा था। 

सारे गाँव वाले इस शादी के पक्ष में थे पर वर और वधू , दोनों ही इस शादी के लिए तैयार न थे। आखिरकार मामला पंचायत में पहुंचा दिया गया था।पंचायत का फैसला तो सबको मानना ही पड़ेगा। बस पंचों के आने का इंतज़ार था पर पंच अभी तक आये नहीं थे। 

अंदर के कमरे में बैठी निम्मो शादी के लिए तैयार ही नहीं हो रही थी। 
"मुझे ये शादी नहीं करानी है," कहते हुए निम्मो ने एक बार फिर हाथ छुड़ाने का असफल प्रयास किया तो पड़ोस की बुज़ुर्ग काकी बोली, "चुप कर, मरी। शादी नहीं करेगी तो भरी जवानी में कहाँ जायेगी?" 
सभी उपस्थित औरतों ने काकी की बात से सहमति में सिर हिलाया।

" हाँ तो और क्या? मरद के सहारे के बगैर भी भला औरत को कोई पूछे है क्या?" दूसरी पड़ोसन बोली। 

"काहे का सहारा देगा मुझे? अपनी सुध तो है नहीं उसे। अरे बच्चा है वो तो?" निम्मो ने खीज कर पलटवार किया तो काकी ने एक बार फिर ज्ञान बघारा, "कैसा बच्चा? अरे मरद तो है ना घर में ? मिटटी का ही हो, मरद तो मरद ही होता है। और क्या चाहिए औरत को?" 

बाहर कुछ सरगर्मी हुई। शायद पंच आ गए थे। पंचायत बैठी तो फैसला सुनाने में दो मिनट भी न लगे। रामबिलास, अपने भाई हरबिलास की विधवा निम्मो को चूड़ी पहनायेगा और आज से वो मियां-बीवी कहलायेंगे। निम्मो ने आवाज़ उठाने की कोशिश की तो सबने उसे चुप करा दिया।

उधर सरपंच ने ऊंची आवाज़ में कहा, "अरे ओ रामबिलास! कहाँ मर गया रे। चल, जल्दी कर। ये लाल चूड़ियाँ डाल दे अपनी भाभी के हाथ में। चल आज से ये तेरी जोरू हुई। ख़याल रखना इसका और इसके लड़के का। वो भी तेरा लड़का हुआ। "

"चलो अच्छा ही है। बिना शादी किये ही लड़का मिल गया," किसी ने पीछे से चुटकी ली। 

पंचायत के दो टूक फैसले से सहमा सा रामबिलास जब चूड़ियाँ लेकर निम्मो के पास पहुंचा तो निम्मो ने अपने हाथ पीछे खींच लिए। पर गाँव की औरतें कहाँ मानने वाली थी। साथ बैठी औरतों ने उसके हाथ ज़बरन पकडे और रामबिलास से उनमे लाल कांच की चूड़ियाँ डलवा दीं। कही से कोई एक चुटकी सिन्दूर भी ले आई और रामबिलास से निम्मो की मांग में डलवा दिया। निम्मो की नम आँखों को किसी ने नहीं देखा या शायद देखा तो अनदेखा कर दिया। पास बैठी औरतों में से एक ढोलक उठा लाई और सबने शादी के गीत गाने शुरू कर दिये। 

और इस तरह रामबिलास की शादी अपने बड़े भाई हरबिलास की विधवा निम्मो से हो गयी। 

इसी तरह बन्ने - बन्नी गाते-गाते रात हो गयी और गांव की औरतें निम्मो को उसकी कोठरी में धकेल कर बाहर निकल गयीं। पड़ोस की काकी ने बाहर से आवाज़ दी, "अरी निम्मो, तेरे बेटा हरिया आज हमारे घर में रहेगा। फ़िक्र न करना।"
निम्मो का दिमाग तो बिलकुल सुन्न हो गया था। उसे समझ में ही नहीं आ रहा था कि वह क्या करे। कुछ देर सोचती रही, फिर थक कर बिस्तर पर बैठी ही थी कि कोई रामबिलास को भी कमरे में धकेल गया और बाहर से कुंडी लगा दी। सहमा सकुचाया सा रामबिलास कोठरी में आकर दो मिनट तो खड़ा रहा। फिर जैसे ही लालटेन की बत्ती बुझाने बढ़ा, निम्मो ने खिन्न मन से कहा, "देवर जी ये बत्ती-वत्ती बाद में बुझाना। यह दरी ले लो और उधर ज़मीन पर सो जाओ।" 

रामबिलास ने चुपके से दरी उठाई और कोठरी के एक कोने में बिछा ली। वह सुबह से परेशान था और थका हुआ था। थोड़ी ही देर में उसके खुर्राटों की आवाज़ कोठरी में गूंजने लगी। पर निम्मो की आँखों में नींद कहाँ थी? यह वही कोठरी थी जहाँ उसके पति की मृत्यु हुई थी। वही चारपाई थी और वही लालटेन थी। 

उसके पति को मरे अभी एक साल भी नहीं गुज़रा था और देवर से चूड़ी पहनवा कर जबरन उसकी शादी करवा दी गयी थी। ये पंच भी कैसे पत्थर दिल हैं। इनके दिल में कोई भावनाएं नहीं हैं क्या? क्या कोई अपनों को इतनी जल्दी भुला देता है? क्या पति-पत्नी का रिश्ता सिर्फ जिस्मानी रिश्ता है? निम्मो का दिमाग पूर्णतः अशांत था। उसके दिमाग में पिछले साल भर की घटनाये फिल्म की तरह घूम रही थी। 

**** 

करीब एक साल पहले की ही तो बात थी। पूस का महीना था। कड़ाके की सर्दी पड़ रही थी। हवा के थपेड़े तो इतने तेज़ कि मानो झोंपड़ी पर पड़े छप्पर को ही उड़ा कर ले जायेंगे। टूटी हुई खिड़की पर ठंडी हवा को रोकने के लिए लगाया हुआ गत्ता हिल-हिल कर मानो हवा कोअंदर आने का बुलावा दे रहा था। कोठरी के अंदर दीवार के कोने पर लटकी हुई लालटेन की लौ लगातार भभक रही थी। संभवतः, उसमे तेल शीघ्र ही समाप्त होने वाला था। कोने में एक टूटी सी चारपाई पर हरबिलास लेटा हुआ था। उसका बदन तीव्र ज्वर से तप रहा था। पुरानी मैली सी रज़ाई में उंकडूं होकर किसी तरह वह अपनी ठण्ड मिटाने का असफल प्रयास कर रहा था। पर उसका शरीर की कंपकंपाहट थी कि ख़त्म होने को नहीं आ रही थी। पास ही एक पीढ़े पर वह बैठी थी। तीन वर्ष का हरिया उस की गोद में सो रहा था। चिंता के मारे निम्मो का सुन्दर चेहरा स्याह पड़ गया था। पति के माथे पर ठन्डे पानी की पट्टी रख-रख कर उसके हाथ भी ठण्ड से सफ़ेद हो गए थे। पर बुखार था कि उतरने का नाम ही नहीं ले रहा था। पति के होठ कुछ बुदबुदाये तो उसने आगे झुक कर सुनने की कोशिश की। 
"राम बिलास कहाँ है?" वो पूछ रहा था। 
"उसे भी तेज़ बुखार है। वो दूसरी कोठरी में लेटा है।" निम्मो ने धीरे से जवाब दिया था। 
"निम्मो, कितने लोग और चल बसे?" हरबिलास की आवाज़ कमज़ोरी और डर के मारे और भी मंद हो गयी थी। 
"आप फिकर नहीं करो जी, कोई नहीं गया है। सब ठीक हो रहे हैं," उसने अपने स्वर को संभाल कर झूठ बोला था।
"मुझे नहीं लगता मैं ठीक हो पाऊँगा। यह महामारी तो कितने प्राण ले चुकी है। लगता है इसका कोई इलाज भी नहीं हैं," उसने फिर कहा था। 
"नहीं नहीं। रामू काका कह रहे थे कल सरकारी अस्पताल का डाक्टर गॉंव में आएगा," निम्मो ने उसे उम्मीद दिलाने की कोशिश की थी। 
"अरे डाक्टर ही क्या कर लेगा। इस प्लेग का तो कहते हैं कोई इलाज ही नहीं हैं। मैंने सुना था बड़े-बड़े अँगरेज़ भी मर गए हैं इस से। फिर हम गरीबों का क्या होगा?" 

पास रखी अंगीठी की आंच तेजी से कम होती जा रही थी और लाल अंगारों पर राख की मोटी परतें जमने लगी थी। क्या यह मात्र संयोग था या फिर आने वाले काल का संकेत? तभी पास के मकान से ह्रदय-विदारक विलाप की चीखें सुनाई पड़ी।

"लगता है बाबू लाल भी गया। मुझे लगता है अब मेरी बारी है।" हरबिलास की आवाज़ कांप रही थी। 
"शुभ- शुभ बोलो। तुम कहीं नहीं जाओगे मुझे और हरिया को छोड़ के," उसने प्यार भरी झिडकी दी थी। 
"ना निम्मो। लगता है मेरा टाइम आ गया है। हरिया और रमिया का ख्याल ..." कहते-कहते उसकी सांसें उखडने लगी थी। 
घर्र ...घर्र ...घर्र ............ और फिर उसका सिर एक और लुढ़क गया था। 

निम्मो को कुछ समझ नहीं आया था। वह पथराई आँखों से कुछ क्षण उसे देखती रही। फिर जोर से आवाज़ दी, "रमिया, जल्दी आ। देख तो तेरे भाई को क्या हो गया," कहते हुए उसने तीन साल के हरिया को गोद से धक्का दिया और अपने पति की छाती को झकझोरने लगी थी। 

"क्या हुआ भैया को?" कहते हुए जब रामबिलास कोठरी में घुसा तो उसका चेहरा भी तेज़ बुखार से तप रहा था और आँखें गुडहल के फूल की तरह लाल थी। एक मिनट तो उसने भाई की नब्ज़ देखने की कोशिश की थी पर वो सदमा न सह पाया और बेहोश होकर ज़मीन पर गिर पड़ा था । 

यह घटना सन १९१९ की थी । सारे देश में प्लेग की महामारी फैली हुई थी। गिराहू गाँव भी इससे अछूता न था। मौत का तांडव हर रोज़ आठ दस लोगों की बलि ले रहा था। बस एक यही घर बचा हुआ था जिसमे भी आज यमराज के पाँव पड़ गए थे। घर का इकलौता कमाऊ आदमी आज मौत के घाट उतर गया था। 

रामबिलास को होश आ गया था और अब वह ज़मीन पर बैठा हुआ, रीती आँखों से फर्श की ओर घूर रहा था। आठ साल की उम्र में माँ-बाप दोनों भगवान् को प्यारे हो गए थे। तब से आज तक बड़े भैया ने ही उसे बच्चे की तरह संभाला था। पिछले तेरह साल कैसे निकल गये, उसे पता ही नहीं चला था। बड़े भैया ने उसे हर तकलीफ से दूर रखा था। उनके बगैर पता नहीं वह ज़िन्दगी कैसे जियेगा? 

निम्मो थोड़ी देर तो गुमसुम बैठी देखती रही, फिर दहाड़ें मार कर रोने लगी। उसे पता भी न चला की रामबिलास कोठरी से कब बाहर निकल गया। कुछ देर बाद जब भोले-भाले हरिया ने उसका हाथ खींचना शुरू किया तो उसे होश आया। आसपास देखा तो रामबिलास कहीं न दिखा। निम्मो ने मन पक्का किया और देवर को देखने बाहर निकली। उसका कहीं नामो-निशान भी नहीं था। कहाँ चला गया? अभी-अभी तो यहीं था। घनी काली रात थी और बर्फीली हवाएं अभी भी चल रही थी। कहाँ जाए, किसको बुलाए? पास के घर में तो अभी कुछ मिनट पहले ही बाबूलाल की मौत हो कर चुकी थी। वहां से रोने की आवाज़ें अभी भी आ रही थीं। हरिया को कमर पर उठाये वह दरवाज़े पर खड़ी ही थी की अचानक चन्दन काका दिख गये जो शायद बाबूलाल के घर जा रहे थे। 

"काका," उसने सिर पर पल्लू लिया और सिसकना शुरू कर दिया। 
"क्या हुआ हर बिलास की बहू?" चन्दन काका की आवाज़ में चिंता थी। 
"हरिया के बापू ... ...भी चले गये।" किसी तरह उसके मुंह से निकला था। उसकी सिसकियाँ किसी तरह भी रुक नहीं रही थी। 
"हे राम। हे राम। रमिया कहाँ है?"
"पता नहीं काका। अभी तो यहीं था।" 

रामबिलास कहीं न दिखा तो चन्दन काका पड़ोस से कुछ और लोगों को ले आये थे और उसके पति के शव को चारपाई से उतार कर ज़मीन पर रख दिया था। गाँव के कुछ बड़े आकर वहां बैठ गए थे। वह लोग मरने वालों की गिनती कर रहे थे। इस रफ़्तार से तो पूरा गाँव ही ख़तम हो जायेगा। निम्मो उनकी बातें नहीं सुन रही थी। वह तो बस सूनी आँखों से ज़मीन को देख रही थी। यह व्यक्ति जो अभी तक उसका पति था, एक क्षण में लाश कहलाने लगा था। सुबह होते न होते उसे जला भी दिया जायेगा। यह कैसी रीत है? यह कैसी दुनिया है? निम्मो और उसका तीन साल का बच्चा हरिया, उनका क्या होगा? पर रमिया? रमिया कहाँ है? वह तो अपने बड़े भैया के बिना रह भी नहीं सकता। उसे इतना बुखार भी है, पर वह है कहाँ? सोच सोच कर उसका दिमाग सुन्न होने लगा था। 

सुबह हुई और उसके पति का अंतिम संस्कार हो गया; साथ ही उसी रात प्लेग की चपेट में आये चार और लोगों का भी। औरतें श्मशान घाट नहीं जातीं है यह कह कर चन्दन काका बस अपने साथ तीन वर्ष के हरिया को ले गए थे। उसने आपत्ति की तो रामू काका ने कहा था, "बाप के मुंह में अग्नि कौन देगा? यही तो देगा न!" 

"लगता है किसी मरने वाले की क्रिया या तेरहवीं भी नहीं हो पाएगी। पंडित जी खुद भी प्लेग की चपेट में आ गए हैं। शायद भगवान् को यही मंज़ूर है।" श्मशान घाट से लौटने पर उन्होंने कहा था। 

रामबिलास का कुछ पता ही नहीं चल रहा था। हफ्ते भर तक गाँव वाले उसे ढून्ढ-ढून्ढ कर हार गये थे। कहाँ चला गया? कोई शेर चीता उसे खा गया या कोई भूत - प्रेत उसे उठा कर ले गया था ? 

पंद्रह दिन कैसे कटे, ये तो अकेली निम्मो ही जानती थी। कितनी अकेली हो गयी थी वह। दो हफ्ते बाद का वह दिन क्या निम्मो भूल पायेगी? शाम का झुटपुटा हो चला था और घर में अँधेरा होता जा रहा था। कितने दिनों से घर में चूल्हा नहीं जला था। निम्मो हरिया को गोद में सुलाने की कोशिश कर रही थी। अचानक पड़ोस का लड़का गूल्हा रामबिलास को हाथ से पकडे घर में घुसा, "लो भाभी, रमिया भैया आ गए।" रामबिलास खड़ा हुआ सर झुकाए फर्श को घूर रहा था। उसे देख निम्मो अपने गुस्से पर काबू नहीं कर पाई थी और इतने दिन की सारी भड़ास उस पर निकाल दी थी, "अरे कहाँ मर गया था रे तू ? मैं अकेली यहाँ परेशान हो रही हूँ। तुझे किसी की कोई फ़िकर-विकर है कि नहीं? सारी ज़िन्दगी निकम्मा ही रहेगा?” कहते-कहते निम्मो के आंसू बह निकले थे। शायद इतने दिनों का रुका बांध टूट गया था। 

गूल्हा पहले तो अकबका कर कुछ क्षण उसे देखता रहा था, फिर बोला था, "अरे भाभी, इस बिचारे को ना डांट। ये तो पागल हो गया है। और तो और, इसकी तो ज़बान भी गयी। पहले ही गऊ था, पर अब तो ...." 

सुन कर निम्मो सकते में आ गयी थी। अपना रोना-धोना छोड़ कर बोली, "हाय राम! और इसका बुखार? उतरा कि नहीं?" भाग के निम्मो ने उसके मत्थे पर हाथ रखा और बोली, "चल बुखार तो ठीक हो गया। खाना-वाना खाया कि नहीं? तेरा स्वेटर कहाँ गया रे? चल बिस्तर में लेट जा। मैं तेरे लिए चाय लाती हूँ।" पिछले चार साल से उसने छोटे देवर को अपने बच्चे की तरह संभाला था। वही ममता आज फिर उभर आयी थी। 

चाय बना के लौटी तो देखा हरिया चाचा की गोद में बैठा हुआ था। रामबिलास के आंसू बह रहे थे और हरिया उन्हें पोंछ रहा था। 

अगले छह महीनों में प्लेग की महामारी कुछ थम गयी थी और ज़िंदगी फिर से पुराने ढर्रे पर लौटने सी लगी थी। पर रामबिलास को न अपनी सुध थी और न ही वो बोल पा रहा था। बस जब हरिया उसके पास होता उसके चेहरे पर हल्की सी खुशी दिखती थी। जैसे जैसे परिस्थितियां सामान्य होने लगीं, निम्मो उसे लेकर इलाज कराने चली। बेचारी कहाँ-कहाँ नहीं गयी थी और किस-किस वैद्य, हकीम और ओझाओं के चक्कर नहीं काटे थे। तब कहीं जाकर रामबिलास की जुबान वापिस आयी थी। पर एक उदासी सी उसके चेहरे पर हमेशा के लिए बस गयी थी जो जाने का नाम ही नहीं लेती थी। भाई की कमी उसे हर वक़्त खलती थी। हर वक़्त हँसने-हँसाने वाला रमिया अब गंभीर रामबिलास बन गया था। उसको पति के रूप में स्वीकारना तो किसी भी हालत में संभव नहीं होगा। पर पंचायत के इकतरफा फैसले के बाद और चारा भी क्या है? 

यूं ही सोचते-सोचते कब निम्मो की आँख लग गयी और कब सुबह हो गयी निम्मो को पता ही नहीं चला। आँख खुली तो दिन चढ़ आया था। खिड़की से सूरज की किरणे अंदर झाँक रहीं थी। दरवाज़ा खुला हुआ था और रामबिलास कमरे में नहीं था।

निम्मो धीरे से उठ कर बाहर आयी तो देखा पड़ोसन हरिया को वापस छोड़ गयी थी। आँगन में रामबिलास दातुन कर रहा था। साथ ही एक छोटी सी दातुन उसने हरिया को भी बना कर दे दी थी। दोनों मिल कर हंस रहे थे। दातुन हो गयी थी। अब रामबिलास हरिया को कुल्ला करना सिखा रहा था। निम्मो खड़ी-खड़ी दोनों को देखती रही। दोनों एक दूसरे के साथ कितने खुश लग रहे थे। दातुन कर के रामबिलास खड़ा हुआ तो हरिया मचल उठा, “काका गोदी .. काका गोदी ..." 
उसकी आवाज़ सुन कर निम्मो का ध्यान टूटा तो देखा हरिया अपने चाचा की पीठ पर चढ़ने की कोशिश कर रहा था। रामबिलास ने दातुन ख़तम की और हरिया को गोद में उठा लिया। 

" उठ गयी भाभी? अच्छा रोटी दे दे। खेत पर जा रहा हूँ। बुवाई का समय निकलता जा रहा है, अभी खेती भी शुरू करनी है ना। और हाँ, हरिया की रोटी भी बना देना। इसे भी साथ ले जा रहा हूँ।" 
"हाँ, बस पांच मिनट में देती हूँ," और निम्मो जल्दी से आटा गून्दने लगी। 

नाश्ता कर के रामबिलास हरिया को अपने कंधे पर बिठा कर खेत की ओर चल पड़ा और निम्मो दरवाज़े पर खड़ी काफी देर तक दोनों को जाते हुए देखती रही। लगता था रामबिलास को अपनी ज़िम्मेदारियों का एहसास होने लगा था। कितनी आसानी से उसने घर का ज़िम्मा संभाल लिया था। अपने मृतक भाई की सारी ज़िम्मेदारियाँ, उसकी खेती, उसका बच्चा, उसकी बीबी, सभी कुछ मानो आज उसकी ज़िम्मेदारी बन गया था। 
शायद ज़िंदगी को यही मंज़ूर था। 

समय किसी के लिए नहीं रुकता और जीवन से समझौता करने में ही शायद सबकी भलाई है। उसे महसूस हुआ कि ज़िंदगी और मौत के बीच ज़िंदगी ही ज़्यादा बलवान है। दोनों के बीच आज शायद एक समझौता हो गया था।

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(
हिंदी  पत्रिका सरिता 27 अप्रैल 2020 अंक में प्रकाशित )
https://www.sarita.in/story/hindi-story-samjhauta-aur-maut-ka