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Friday 23 July 2021

LOSS OF TWO CHILDHOOD COMPANIONS

It was an emotionally painful day. I lost two of my oldest companions who stood by me through thick and thin, all my life since my childhood. They never complained and quietly and ungrudgingly performed their role. They helped me in cracking even the hardest nuts easily but I never felt grateful to them nor did I ever acknowledge their existence in my life.

It was about two years ago that one of them fell ill. I went to the doctor and she suggested some minor process. Before I could make up my mind and go ahead with her advice, there was this unending lockdown due to Covid-19 and I hesitated to go to the doctor again. After all, I wanted to keep myself safe and not get exposed to the virus. The only option was to take care of them with home remedies. After some time, the second one had a complicated fracture too. But I was scared and wanted to keep myself safe from Covid-19. So I continued with home remedies for them.

Finally, after I had taken both the vaccine shots, I decided to go to the doctor. They had managed to survive all this while and continued to perform their job albeit not so efficiently, but their condition had deteriorated beyond redemption. The doctor declared that it was time to part ways and she brought an end to their existence. I am now missing my dear friends and there is a big void where they used to sit unseen, unheard quietly performing their duties towards me. They were two of my wisdom teeth and I am missing them. How I wish I had taken better care of them when there was still time!



Wednesday 21 July 2021

माँ की अपेक्षा (लघु कथा)

            जून का महीना लगभग समाप्त होने वाला था. हॉस्टल तकरीबन खाली था.  कहीं-कहीं कोई इक्का-दुक्का छात्र दिख जाता था. ऐसे में, हॉस्टल के कमरे में, चारपाई पर वह अकेला लेटा हुआ, छत की ओर देखे जा रहा था.  उसके चेहरे पर तनाव की रेखाएं स्पष्ट दिखाई पड़ रहीं थीं. दो माह पहले, उसने एम. ए. (अर्थशास्त्र) की परीक्षा दी थी जिसका परिणाम कभी भी आ सकता था. उसे परिणाम की इतनी चिंता नहीं थी; उसे पता था कि पास तो वह हो ही जाएगा.  उसे तो चिंता थी  कि उसे कौन सा स्थान प्राप्त होगा. उसका ध्येय था कि उसे विश्वविद्यालय में प्रथम स्थान प्राप्त हो और साथ में मिले गोल्ड मैडल. गोल्ड मैडल के लिए उसे अपने अन्य सहपाठियों के साथ चल रही कड़ी स्पर्धा का भी पूरा-पूरा अनुमान था. 

सबसे अधिक स्पर्धा तो उसे अपने ही कॉलेज के एक दूसरे सहपाठी विद्या चरण से थी जो बहुत धनी परिवार से था और जिसके पास पढ़ाई के पूरे साधन मौजूद थे, चाहे पुस्तकें हों या अकेला कमरा और घर में नौकर-चाकर की सुविधा. उसके मुकाबले, उसके पास तो किताबें खरीदने के लिए भी पैसे नहीं थे. वह तो किताबों के लिए, कॉलेज की एकमात्र लाइब्रेरी पर ही पूर्णतः निर्भर था.  

परीक्षा आरम्भ होने से लगभग दो माह पूर्व की बात थी जब सभी लेक्चरर तीव्र गति से कोर्स पूरा कराने का प्रयास कर रहे थे और लगभग प्रति-दिन ही एक्स्ट्रा क्लासेज भी हो रहीं थीं. कॉलेज के प्रिंसिपल बहुत अनुशासन-प्रिय थे और अध्यापकों और छात्रों, सबके ऊपर उनकी पैनी नज़र रहती थी. कॉलेज के वातावरण में सरगर्मी थी और वह भी पढ़ाई में पूरा ध्यान लगा रहा था.  

उसकी तैयारियों को एकाएक बहुत बड़ा झटका लगा था, जब एक दिन अचानक उसे बहुत तेज बुखार चढ़ गया था और सारी पढ़ाई रखी रह गयी थी. डॉक्टर ने ब्लड टेस्ट करके बताया था कि टाइफाइड है; कम से कम इक्कीस दिन लगेंगे बुखार उतरने में और ऐसे में वह क्लास में भी नहीं जा सकता है.  खाने-पीने का ध्यान रखना है, वो अलग.  

ज्यों-त्यों कर के तीन हफ्ते निकल गए और बुखार भी उतर गया था पर कमज़ोरी इतनी कि वह खड़ा भी नहीं रह पा रहा था.  नहाने गया तो चक्कर खा कर गिर पड़ा था.  उसका रूम-मेट किसी तरह सहारा देकर उसे कमरे में लाया था.  

उसके बाथ रूम में चक्कर खा कर गिरने की बात कॉलेज में तुरंत फैल गयी थी.   दोपहर का लेक्चर ख़तम होने के बाद उसका सबसे बड़ा प्रतिद्वंदी उसके कमरे में आया और दरवाज़े से ही चिल्ला कर बोला, "अबे भूल जा अब फर्स्ट आने का सपना.  खड़ा तो हो नहीं सकता, फर्स्ट कैसे आएगा? फर्स्ट तो मैं ही आऊंगा." 

यह खुली चुनौती उसके मानस को स्वीकार नहीं हुई थी और उसने भी अपने दुर्बल पर दृढ आवाज़ में उत्तर दे दिया था, "अरे, जा जा. कुछ भी कर ले, गोल्ड मैडल तो मैं ही ले के रहूंगा."

इसके बाद तो उसने दिन-रात एक कर दिया था. पढ़ना, समझना, नोट्स बनाना और उन्हें याद करना.. लगता था कि इसके अतिरिक्त उसके जीवन में और कुछ शेष नहीं बचा था. जैसे अर्जुन को केवल चिड़िया की आँख दिखती थी, उसे केवल गोल्ड मैडल दिख रहा था.  

अब आज-कल में ही रिज़ल्टआने ही वाला था.  उसकी मनोशक्ति जो हमेशा उसके साथ थी, आज उसका साथ छोड़ती लग रही थी. 

                                                           ***

चारपाई पर लेटे -लेटे ही उसे अपनी माँ का ख्याल आया. गांव के कच्चे घर में अभी क्या कर रही होगी भला?  शायद मट्ठा बिलो रही होगी.  वह तो कभी खाली नहीं बैठती है. और वही तो उसके पीछे हमेशा चट्टान की तरह खड़ी रही है, चाहे स्कूल हो या कॉलेज.  चार साल पहले जब वह पढ़ाई करने यहां आना चाहता था तो घर में सबने उसका विरोध किया था पर माँ? उसने साफ़ कह दिया था, "वह आगे पढ़ना चाहता है तो उसे जाने दो.  पैसे की फ़िक्र मत करो, जैसे भी होगा, मैं संभाल लूंगी. मुझे बस एक बात पता है, मेरा यह सबसे छोटा बेटा एक दिन बहुत बड़ा अफसर बनेगा. " 

घर की पैसे की तंगी में इतना बड़ा फैसला लेना बड़ी बात थी पर माँ तो हमेशा बड़े फैसले लेने को मानो तैयार रहती थी.  गांव के मास्टरजी की एक भूल पकड़ लेने पर वह उसे गांव के प्राथमिक विद्यालय से कैसे निकाल लाई थी.  जिस मास्टर को इतना भी नहीं पता, वह बच्चों को क्या पढ़ायेगा, कह कर वह उसे शहर के स्कूल में दाखिल करवा कर आ गयी थी. और वहां उसके साथ जो कुछ हुआ था, आज भी तस्वीर की तरह आँखों के आगे घूम जाता है.   

***

राजकीय माध्यमिक विद्यालय, सहारनपुर में उस दिन बहुत सरगर्मी थी. नए सत्र का पहला दिन जो था.  नए दाखिले हो चुके थे और बहुत सारे बच्चे आज पहली बार स्कूल आ रहे थे. वह भी आज पहली बार इस स्कूल में आया था. आज ही उसे यहाँ छठी कक्षा में दाखिला मिला था. शहर के इस स्कूल में उसका भी पहला दिन था.  वह कितना डरा हुआ था.  सहमा सा, सकुचाया सा, जब वह कक्षा में पहुंचा तो सब बच्चे शोर मचा रहे थे. जैसे ही उसने क्लासरूम में कदम रखा, उसे देखते ही क्लास में बैठे सब छात्र एकदम चुप हो गए और उसे देखने लगे थे.  उनकी आँखों में कौतुहल था और उत्सुकता भी.  

उसकी उम्र भी कम थी, मुश्किल से दस साल का होगा. ऊपर से उस की कद-काठी भी छोटी थी.  सांवला रंग और सिर पर मशीन से कटे हुए छोटे-छोटे बाल, साथ ही सिर पर एक चोटी भी, जिसे उसने जतन से बाँध रखा था. उसके कानों में चांदी की बालियां थी जिन्हे गांव के सुनार काका ने प्यार से उसे पहना दीं थीं, "बेटा शहर में पढ़ने जा रहा है, मेरी बनाई मुरकियां तो पहन जा."   

उसके सूती कपडे वैसे तो साफ़-सुथरे थे पर पता चल रहा था के वह महंगे तो कदाचित नहीं थे.  उसके बालों के स्टाइल, पट्टू के पाजामे और कान में पडी मुरकियों से साफ़ पता लग रहा था कि वह गांव के किसी गरीब परिवार से आया है.   

संभल-संभल कर कदम उठाता हुआ वह धीरे से क्लास में घुसा था और सबसे पीछे रखे एक खाली डेस्क पर बैठ गया था.  सारे छात्र उसे लगातार घूर रहे थे. जैसे ही उसने अपना बैग वहां रखा, एक मोटा सा गोरा लड़का उठा और उसकी तरफ इशारा करके ज़ोर से बोला, "अरे भाई, किसी को पता है क्या कि यह कौन सा जानवर है?"

दूसरे कोने से एक लड़के ने जवाब दिया, "चूहा है, चूहा." 

पूरी क्लास ज़ोर से हंस पडी थी. 

अब एक तीसरा बोला, "अरे नहीं रे, यह तो पिद्दी चूहा है," और सारे बच्चे ज़ोर-ज़ोर से हंसने लगे थे. और वह? वह असहाय और घबराया सा फर्श की ओर देखे जा रहा था.

अब एक और लड़का, जो शायद सब का नेता था ज़ोर से बोला, "अरे ओ चूहे! सामने आ और सबको बता कि तू कौन से बिल से आया है?”

अब तो उसकी हालत और खराब हो गयी थी.   

"अरे नहीं.  कोई नाम पता बताने की ज़रुरत नहीं है. यह तो एक डरा हुआ चूहा है, इसका हमारी क्लास में क्या काम है? चलो इसकी पूंछ पकड़ कर इसे बाहर फ़ेंक देते हैं," किसी ने उसकी चोटी की ओर इशारा करते हुए कहा और दो-तीन मोटे-तगड़े लड़के उसकी चोटी खींचने के इरादे से उसकी ओर बढ़ने लगे. क्लास के बाकी सब बच्चे तमाशा देख रहे थे और हंस-हंस कर मज़े ले रहे थे. 

वह डर से कांप रहा था और उसके दिल की धड़कन तेज़ होती जा रही थी. पर उसका भाग्य अच्छा था. जैसे ही उनके हाथ उसकी चोटी पर पहुँचते कि क्लास-टीचर आते हुए दिख गए. उन्हें देखते ही सब लड़के अपने-अपने डेस्क की ओर भाग गए थे और उसकी जान बच गयी थी. 

क्लास टीचर ने सब की हाज़री लगाई और पूछा, "आज नया लड़का कौन आया है क्लास में?"

 

कुछ देर पहले हुई घटना से वह अभी भी डरा हुआ था.  डरते-डरते उसने अपना हाथ उठाया था.  मास्टर जी ने अपने मोटे चश्मे को नाक के ऊपर चढ़ाया और उसकी ओर दो क्षण ध्यान से देखा, मानों उसका परीक्षण कर रहे हों. फिर बोले, "गणित में पक्के हो?"

 

उसे समझ में नहीं आया कि क्या उत्तर दे.  मास्टर जी ने एकाएक उस पर सवालों की बौछार कर दी थी, "खड़े हो जाओ और जल्दी-जल्दी बताओ, सत्तानवे और तिरासी कितना हुआ?” 

उसने एक क्षण सोचा और बोला, "एक सौ अस्सी."

"सोलह सत्ते कितना?"

"एक सौ बारह," उसने तुरंत जवाब दिया.  

"तेरह का पहाड़ा बोलो," टीचर ने आगे कहा. 

"तेरह एकम तेरह, तरह दूनी छब्बीस, तेरह तिया उन्तालीस  .. .. .. तेरह नम एक सौ सत्रह, तेरह धाम एक सौ तीस," वह एक ही सांस में तेरह का पहाड़ा पढ़ गया. 

"उन्नीस का पहाड़ा आता है?"

"जी आता है.  सुनाऊँ क्या?" उसका आत्म-विश्वास अब बढ़ रहा था. 

"नहीं रहनो दो," टीचर जी की आवाज़ अब कुछ नरम हो गयी थी. 

"तुम्हे पहाड़े किसने सिखाये?"

"माँ ने घर पर ही सिखाये हैं," उसने दबे स्वर में उत्तर दिया था. 

"माँ नें? माँ कितनी पढ़ी हुयी है?" उनकी आवाज़ में अविश्वास था. 

"नहीं गुरूजी.  माँ पढ़ी-लिखी नहीं हैं.  उन्होंने तो मुझे सिखाने के लिए मेरे बड़े भाई से पहाड़े सीखे थे. "

"हम्म्म्म.  बैठ जाओ," अध्यापक की आवाज़ में उसे कुछ प्रशंसा की अनुभूति हुई थी और वह बैठ गया. लगा तनाव अब कुछ कम हो गया था.  

मास्टरजी क्लास टीचर होने के अतिरिक्त बच्चों को गणित भी पढ़ाते थे.  वह बहुत लायक अध्यापक थे, बहुत मेहनत से छात्रों को पढ़ाते थे और उनसे ऊंची अपेक्षा भी रखते थे. अपेक्षाएं पूर्ण न होने पर उनका पारा चढ़ जाता था और गुस्सा उतरता था बच्चों की हथेलियों पर, उनकी छड़ी की लगातार मार से. और इस छड़ी की मार से सभी बच्चे बहुत डरते थे. उनका मकसद तो बस इतना था कि उनका कोई छात्र गणित में कमज़ोर न रह जाए.

ऐसे ही धीरे-धीरे एक महीना निकल गया. उन तीन शैतानों की तिगड़ी उसे परेशान करने का और मज़ाक़ बनाने का कोई मौक़ा नहीं छोड़ती थी.  कभी उसके बालों का मज़ाक तो कभी उसके कपड़ों का.  असहाय सा होकर वह सब अन्याय सहता था; इसके अलावा उसके पास और कोई चारा भी तो नहीं था. वह तीन थे, शारीरिक रूप से बलशाली थे और शहर के प्रभावशाली परिवारों से थे. वह तीनों तो स्कूल भी रोज़ कार से आते थे और उनका ड्राइवर उनका बस्ता और खाने का डिब्बा क्लास तक छोड़ कर जाता था. इन बातों को सभी बच्चे देखते थे और कुछ शिक्षक भी उन्हें हतप्रभ होकर देखा करते थे. उनकी तुलना में, वह तो एक दरिद्र परिवार से था जिसे स्कूल की फीस देना भी कठिन लगता था, अपनी साइकिल चला कर दस किलोमीटर दूर से आता था.  खाने के डिब्बे में तो बस दो नमकीन रोटी और अचार होता था. 

यूँ ही दिन निकलते गए और तिमाही परीक्षा का समय आ गया था.  तिमाही परीक्षा के नम्बर बहुत महत्वपूर्ण थे क्योंकि उसके २५% नम्बर वार्षिक परीक्षा फल में जुड़ते थे. इसीलिये सभी छात्रों से यह अपेक्षा होती थी कि वे इन परीक्षाओं को गम्भीरतापूर्वक लें. 

परीक्षा के लगभग एक सप्ताह बाद जब  मास्टरजी हाथ में पैंतीस कापियां  लिए घुसे, वातावरण में सन्नाटा सा छा  गया था.  मास्टरजी ने कापियां धम्म से मेज़ पर पटकीं, अपनी छड़ी ब्लैक बोर्ड पर टिकाई और हुंकार भरी, "मुरकी वाले!"

"जी मास्टरजी," वह डर के मारे स्प्रिंग लगे बबुए की तरह उछल कर खड़ा हो गया था. 

"यह तुम्हारी कॉपी है?"

"जी मास्टर जी," उसकी ज़बान डर से लड़खड़ा गयी  थी. 

"इधर आओ, " मास्टरजी की रोबदार आवाज़ कमरे में गूंजी तो उसके हाथ-पाँव ठन्डे होने लगे और वह धीरे-धीरे मास्टरजी की मेज़ की तरफ बढ़ा. 

"अरे जल्दी चल.  माँ ने खाना नहीं दिया क्या आज?"

वह तेज़ी से भाग कर मास्टर जी की मेज़ के पास पहुँच गया.  मन ही मन वह स्वयं को मास्टरजी की बेंत खाने के लिए भी तैयार कर रहा था.      

मास्टरजी ने उसे दोनों कंधों से पकड़ा और क्लास की तरफ घुमा दिया.  उसके कन्धों पर हाथ रखे-रखे मास्टर जी बोले, "यह लड़का छोटा सा लगता है.  रोज़ साइकिल चला कर गांव से आता है पर पूरी क्लास में बस एक यही है जिसके सौ में से सौ नम्बर आये हैं. शाबाश, मेरे बच्चे, तुमने मेरा दिल खुश कर दिया," कहते हुए मास्टरजी ने उसकी पीठ थपथपाई तो उसे चैन की सांस आयी थी.   

अब मास्टर जी ने आख़िरी बेंच की ओर घूर कर देखा और आवाज़ लगाई, "ओये मोटे, ओ मंद बुद्धि, अरे ओ अकल के दुश्मन! तीनों इधर आगे आओ. तुम तीनो तो मेरी क्लास के लिए काले धब्बे हो.  तीनों को अंडा मिला है." 

अब जो हुआ, वह तो उसने कभी सपने में भी नहीं सोचा था.  मास्टरजी ने उसे अपनी छड़ी पकड़ाई और कहा, "तीनो के हाथों पर दस-दस बार मारो.  तभी इनको अकल आएगी. "

वह अकबका कर खड़ा रह गया.  उसे समझ ही नहीं आ रहा था कि क्या करे.  एक लड़के ने फुसफ़ुसा कर कहा, "धीरे से...नहीं तो .."

उसने धीरे से उसकी हथेली पर छड़ी मारी तो मास्टर जी की ऊंची आवाज़ कान में पडी, "ज़ोर से मारो, नहीं तो डबल छड़ियाँ तुम्हारे हाथों पर पड़ेंगीं."

यह सुन कर तो उसकी हवा सरक गयी और अगले पांच मिनट तक छड़ियों की आवाज़ कमरे में गूंजती रही.  सटाक ... सटाक ... सटाक!!!

और इस तरह से छोटे से गांव का वह छोटा सा लड़का अपनी क्लास का बेताज का बादशाह बन गया था. आने वाले चार सालों में उसका सिक्का चलता रहा था.  उसे समझ आ गया था कि पढ़ाई में सबसे ऊपर रह कर ही वह अपने आत्म-सम्मान की रक्षा कर सकता था. 

***

अचानक हॉस्टल की बिजली चली गयी और  गर्मी का एहसास उसे अतीत से वर्तमान में खींच लाया. उठ कर वह कमरे के बाहर आ गया और बरामदे की दीवार पर बैठ गया.  जून का महीना था, सुबह के ग्यारह  बज चुके थे और हवा गरम थी.  पूरा हॉस्टल खाली पड़ा था; तकरीबन सभी छात्र गर्मियों की छुट्टी में घर चले गए थे पर वह वहीं रुक गया था. घर जाकर क्या करता; यहाँ रह कर पुस्तकालय से किताबें लेकर वह आने वाली प्रतियोगात्मक परीक्षाओं की तैयारी कर सकता था.  आज सोमवार था और लाइब्रेरी बंद थी.  अतः वह कमरे में ही बैठा था.  

बरामदे की दीवार पर बैठा वह नीले आकाश की ओर देख रहा था जहाँ कुछ पक्षी ऊंची उड़ान भर रहे थे.  क्या वह भी कभी ऐसी उड़ान भर पायेगा? सोचते-सोचते ध्यान फिर से अतीत की गलियों में भटक गया. 

***

चार साल पहले, देहरादून में माता वाले बाग़ के पास वह एक छोटा सा कमरा जहाँ वह और उसके बड़े भाई रहते थे.  रात का समय था.    कमरे में बान की दो चारपाइयाँ पड़ीं थीं.  उनके बीच एक लकड़ी का फट्टा रखा था और उस फट्टे पर मिट्टी के तेल वाली एक लालटेन रखी थी जिस से दोनों को रोशनी मिल रही थी.  वह इंटरमीडिएट परीक्षा की तैयारी कर रहा था और बड़े भैया एम. ए. की.  दोनों भाई अपनी-अपनी चारपाई पर पालथी मार कर बैठे हुए थे, किताब गोद में थी और परीक्षा की तैयारी चल रही थी.  कमरे में सन्नाटा था, बस कभी-कभी पन्ना पलटने की आवाज़ आती थी.

लालटेन की लौ अचानक भभकने लगी. 

"चलो अब सो जाते हैं.  लगता है लालटेन में तेल ख़तम हो रहा है," बड़े भैया ने चुप्पी तोड़ी थी. 

"पर मेरी पढ़ाई तो पूरी नहीं हुई है," उसने दबा हुआ सा विरोध किया था. 

"समझा करो न. घर में और तेल नहीं है.  अगर कल ट्यूशन के पैसे मिल गए तो मैं तेल ले आऊंगा.  अब किताबें रख दो और सो जाओ.  मैं भी सो रहा हूँ.  और कोई तरीका नहीं है," कहते हुए बड़े भैय्या ने किताबें ज़मीन पर रखी और करवट बदल कर लेट गए.

लालटेन की लौ एक बार ज़ोर से भड़की और लालटेन बुझ गयी. कोठरी में पूरी तरह अंधकार छा गया था.

उसने अँधेरे में ही किताबें उठायीं और दबे पाँव कमरे के बाहर निकल गया था.    

बाहर सड़क किनारे, बिजली के खम्बे के नीचे पड़े, पेड़ के एक तने पर ही बैठ कर उसकी बाकी की पढ़ाई शुरू हो गयी थी और तब तक चलती रही जब तक अगले  दिन की परीक्षा की तैयारी पूरी नहीं हो गयी. 

कुछ दिन बाद जब इंटरमीडिएट परीक्षा का नतीजा निकला तो उसे खुद भी विश्वास नहीं हुआ कि उसने पूरे उत्तर प्रदेश राज्य में प्रथम स्थान प्राप्त किया था. 

रिजल्ट देख कर बड़े भैया भी खुश हुए और बोले, "तुम्हारे नंबर अच्छे आयें हैं, अब तुम्हे कहीं न कहीं क्लर्क की नौकरी तो मिल ही जाएगी. चलो मैं कल ही कहीं बात करता हूँ."  

उसने तुरंत कहा था,"नहीं, नहीं मुझे नौकरी नहीं करनी है: मुझे आगे पढ़ाई करनी है और माँ के सपने को साकार करना है.  वह चाहती है कि मैं खूब पढ़ाई करके एक बड़ा अफसर बनूँ."

बड़े भैय्या ने कुछ अनमने से होकर कहा था,"अब मैं तुम्हारा खर्चा और नहीं उठा सकता हूँ.  समय आ गया है कि अब तुम खुद कुछ कमाना शुरू करो." 

सुनकर उसे अच्छा नहीं लगा था पर इतने अच्छे नंबर और बोर्ड में पहला स्थान आने से उसका आत्मविश्वास बढ़ गया था, "पर भैय्या, मैंने बोर्ड में टॉप किया है.  मुझे लगता है कोई न कोई कॉलेज तो मेरी फीस माफ़ कर ही देगा. आप मुझे बस पचास रुपये दे दीजिये."

"अच्छा ठीक है.  जब मुझे ट्यूशन के पैसे मिलेंगे, मैं तुम्हे दे दूंगा," भाई की ये बात सुनकर उसका दिल बल्लियों उछलने लगा था. 

अगले महीने की पहली तारीख को बड़े भैय्या ने उसके हाथ में पचास रुपये रख दिए और उसने उसी रात कानपुर  की ट्रेन पकड़ ली थी.  उसने कानपुर के डी.ए वी. कॉलेज के प्रधानाचार्य  श्री कालका प्रसाद भटनागर के विषय में बहुत सकारात्मक बातें सुनीं थीं. बस अपनी किस्मत आजमाने वह कानपुर  चला आया था. गर्मी की छुट्टियां चालू हो गयीं थीं पर प्रिंसिपल साहब अपने दफ्तर में विराजमान थे.  उसकी हाई स्कूल और इंटरमीडिएट की मार्क-शीट देखी  तो बोले, "तुम्हे कहीं जाने की ज़रुरत नहीं है.  तुम्हारा एडमिशन बस यहां हो गया है. तुम्हारी फीस माफ़ और हॉस्टल का खर्चा भी.  हमारे कॉलेज को तुम्हारे जैसे बच्चों की ज़रुरत है.  मुझे पूरा विश्वास है कि तुम हमारे कॉलेज का नाम रोशन करोगे."

प्रिंसिपल साहब के कमरे से निकला तो उसका दिल प्रसन्नता से फूला समा रहा था. अपना टीन का बक्सा उठाये वह हॉस्टल पहुँच गया और अपने पिछले चार साल उसने इसी कमरे में बिताये थे.  बी.ए, की परीक्षा में फर्स्ट डिवीज़न आयी तो उसकी एम.ए. की फीस भी माफ़ हो गयी थी.  और आज एम. ए. का रिजल्ट भी आने वाला था.  

***

"अरे ओ भैय्या.  हियाँ बईठ के का दिन में ही सपनवा देख रहे हो? चलो चलो, जल्दी चलो. प्रिंसिपल साहब अपने दफ्तर में बुलाएं हैं तुमका," दफ्तर का चपरासी उसे बुलाने आया था. 

वह तत्काल उठा और भाग कर कमरे में जाकर कमीज पहन कर आ गया.  उसका दिल तेज़ी से धड़क रहा था.  प्रिंसिपल साहब ने उसे क्यों बुलाया है? शायद रिजल्ट आ गया होगा.  अगर रिजल्ट अच्छा न हुआ तो? अगर फर्स्ट डिवीज़न ना आयी तो क्या होगा? क्या उसे हॉस्टल खाली करना पड़ेगा? परीक्षा देते हुए उसकी तबियत इतनी खराब थी."

दफ्तर के पास पहुंच कर उसने देखा कि उसका सबसे बड़ा प्रतिद्वंदी विद्या चरण भी वहां पहुंचा हुआ था. उसे भी दफ्तर में बुलाया गया था.  दोनों की आँखें मिलीं तो लगा कि वह एक दूसरे को नापने की कोशिश कर रहे थे. चपरासी ने दोनों को अंदर आने का इशारा किया. 

प्रिंसिपल साहब बहुत गंभीर स्वभाव के व्यक्ति थे.  उन्होंने अपना चश्मा एडजस्ट किया और दोनों को देखा.  उनके स्वभाव के प्रतिकूल आज उनके चेहरे पर मंद मुस्कराहट थी, "तुम लोगों का  रिजल्ट आ गया  है.  तुमने हमारे कॉलेज का सिर गर्व से ऊंचा कर दिया है. मैंने सोचा कि तुम्हे खुद ही बता दूँ.”

ऐसा कहते हुए वह अपनी मेज़ से उठ कर आगे आए और विद्या चरण से हाथ मिलाते हुए बोले, "मुबारक़ हो, विद्या! तुमने कॉलेज में टॉप किया है."

विद्या चरण का चेहरा खुशी से चमक उठा और वह तुरंत प्रिंसिपल साहब के पैर छूने को झुक गया. साथ ही वह तिरछी नज़र से उसे भी देख रहा था मानो कह रहा हो, "ले बेटा, बड़ा चौड़ा हो रहा था कि फर्स्ट तो मैं ही आऊंगा. पता लग गयी अपनी औकात." 

उसका फर्स्ट आने का सपना चकनाचूर हो गया था पर आँखें झुकाये वह वहां खड़ा रहा था: किसी तरह आँसूँ छिपाने की कोशिश कर रहा था. उसका प्रतिद्वंदी आखिरकार उस से जीत गया था.   

वह वहां खड़ा हुआ अपने पैर के अंगूठे को देखे जा रहा था और उसने ध्यान भी नहीं दिया कि कब  प्रिंसिपल साहब उसके पास आकर खड़े हो गए और उसे अपने गले लगा लिया. 
"और तुम तो मेरे चमत्कारी बच्चे हो. तुमने हम सब की छाती चौड़ी कर दी है.  तुमने यूनिवर्सिटी में टॉप किया है.  पहली बार हमारे कॉलेज से किसी ने यूनिवर्सिटी में टॉप किया है. जल्दी ही अपना गोल्ड मैडल लेने के लिए तैयार हो जाओ."

यह सुन कर वह सकते में आ गया. उसे अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था. आँखों में आये दुःख के आँसूं अब खुशी के आंसुओं में बदल गए थे. 

प्रिंसिपल साहब ने बात आगे बढ़ायी, "हमारे कॉलेज में एक लेक्चरर  की जगह  खाली है.  मैं चाहता हूँ कि तुम यहां ज्वाइन कर लो.   मुझे पता है तुम प्रशासनिक सेवाओं में जाना चाहते हो पर तुम्हारी उम्र अभी कम है.  अगले साल तक यहीं पढ़ाओ और अपनी तैयारी भी करो.  कॉलेज का भी फायदा और तुम्हारा भी.  क्या ख्याल है?"

"जैसी आपकी आज्ञा, सर," कहते हुए उसने हाथ जोड़ कर सर झुका दिया और उसके हाथ स्वतः ही प्रिंसिपल साहब के पैरों की ओर बढ़ गए. 

प्रिंसिपल साहब के दफ्तर से जब वह बाहर निकला, उसकी दुनिया पूरी तरह बदल चुकी थी.  कड़ी मेहनत, दृढ निश्चय और कुछ कर दिखाने की इच्छा और उन सब के पीछे थी उसकी माँ की अपेक्षाएं जिन की शक्ति ने आज उसे एक सफल जीवन की चौखट पर ला कर खड़ा कर दिया था. 

 

(दिल्ली प्रेस की पत्रिका सलिल सरस २०२१ में प्रकाशित)