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Tuesday 21 October 2014

कहाँ गये वो लोग? (लघु कथा)

                कहाँ गये वो लोग?                             

            वह एक राष्ट्रीयकृत बैंक में अफसर है और गत वर्ष तक बड़ी कम्पनियों को ऋण देने का काम संभालती थी.  पांच करोड़ रुपये का एक ऋण प्रस्ताव कुछ ज़्यादा ही पेचीदा था जो उसने अपनी भरपूर क्षमता-अनुसार बैलेंस-शीट का विधिवत विस्तारपूर्वक विश्लेषण करके बनाया था और अपने उच्चाधिकारी को अपनी संस्तुतियों के साथ भेज दिया था.

अगले दिन अधिकारी के निजी सचिव का फ़ोन आया, "मैडम, आपका पांच करोड़  वाला लोन प्रस्ताव मैंने कल ही साहब की मेज़ पर रख दिया था और आज उन्होंने उसे देख भी लिया है.  मुबारक़ हो मैडम, साहब आपकी तारीफ कर रहे थे. कह रहे थे कि मैडम ने बहुत अच्छा नोट बनाया है. लगता है जल्दी ही स्वीकृत हो जायेगा. और हाँ, साहब कम्पनी के उच्चाधिकारियों का फ़ोन नंबर मांग रहे हैं.  आपके पास है क्या?"

"हाँ, है न. नोट कीजिये," यह कहते-कहते उसने सारे फ़ोन नंबर लिखा दिए. दिल में एक संतोष था कि उसका बनाया हुआ पहला बड़ा प्रोपोज़ल संभवतः बिना किसी टिप्पणियों के पास हो जायेगा   अभी वह घर जा ही रही थी कि बड़े साहब का चपरासी नोट ले आया जिस पर साफ़-साफ़ लिखा था "एप्रूव्ड".  शाम हो चली थी, नोट अलमारी में रखा और वह घर चली गयी. 

सुबह दफ्तर आयी तो आते ही बड़े साहब के निजी सचिव का पुनः फ़ोन आ गया, "मैडम, वह नोट जो साहब ने कल एप्रूव किया था, उसे वापस मँगा रहे हैं."

उसने नोट उठा कर वैसे ही चपरासी को पकड़ा दिया. 

पंद्रह मिनट में नोट वापस उसकी मेज़ पर था.  उत्सुकतावश जब उसने नोट को देखा तो दंग रह गयी.  जहाँ "एप्रूव्ड" लिखा था, वहां अब लिखा हुआ था "नॉट एप्रूव्ड"बड़े साहब ने अपने हाथ से "एप्रूव्ड" के आगे "नॉट" लगा दिया था. उसकी आँखें खुली की खुली रह गयीं. यह क्या हुआ? रातों-रात ऐसा क्या हो गया कि पास किया कराया नोट रिजेक्ट कर दिया गया. उसने भगवान का शुक्र मनाया कि उसने कम्पनी को यह खुश-खबरी अभी नहीं दी थी. 

दो दिन और निकल गये और उसने अनमने दिल से कम्पनी को भेजने के लिए रिजेक्शन लैटर भी तैयार कर लिया.  दिल भारी था कि सारी मेहनत बेकार गयी.  तभी बड़े साहब का चपरासी आता हुआ दिखा और साथ ही बजी इण्टरकौम की घंटी. साहब के निजी सचिव का फ़ोन था, "मैडम, साहब ने नोट वापस मंगाया है. ज़रा भेज देना." 

आधे घंटे में नोट फिर वापस आ गया.  इस बार टिप्पणी देखी तो उसका सिर ही घूम गया.  "अरे! ये क्या हुआ?" 

अब नोटिंग थी "नोट एप्रूव्ड." बड़े साहब ने नॉट के आगे बस एक e और लगा दिया था. अंग्रेजी भाषा का यह अनहोना चमत्कार देख कर वह दंग रह गयी.  क्या ऐसा भी हो सकता है?  बड़े साहब की तो कुछ और ही छवि उसके दिमाग में थी.  पर जो कुछ हुआ वह तो सामने ही था और किसी मूर्ख को भी  समझ में आ सकता था.

तभी कंपनी के वित्त अधिकारी का फ़ोन आ गया. "मैडम अप्रूवल लेटर कब मिलेगा? आपके साहब ने तो अब स्वीकृति दे ही दी है.

"हाँ लेटर तो मैं अभी बना रही हूँ. दोपहर तक आपको फैक्स कर दूंगीं.

"हाँ एक बात और थी. अपने  घर का ज़रा पता बता दीजिये। शाम को आप कितने बजे तक घर पहुँच जाती हैं?"

"क्यों? कोई ख़ास बात?" उसने अचंभित होकर पूछा.

"कुछ ख़ास नहीं.  सोचा बस आपका हिस्सा भी आपको भेंट कर दें."

"कैसी बातें कर रहे हैं आप? मैंने अपना काम किया है. मेरे घर आने की कोई ज़रुरत नहीं है ," कहते हुए उसने फ़ोन पटक दिया था. 

 

नोट को दोनों हाथों से पकड़ कर वह बैठ गयी.  दिल और दिमाग के बीच संघर्ष चालू हो गया था.   साहब की शिकायत करनी होगी ; परन्तु क्या शिकायत करेगी.  उसने जो संस्तुति की थी, वही तो अनुमोदित कर दी गयी थी.  बाकी बातों  का तो न कोई सबूत था और ना ही कोई गवाह.  क्या हुआ होगा? कितना लेन-देन हुआ होगा, क्या पता.  सोच-सोच कर उसका दम घुटने लगा.  उसके अपने मूल्य इतने ऊंचे थे कि  चुप रहना भी मुश्किल लग रहा था.  

बैठे-बैठे दिमाग अतीत की और दौड़ चला. 

*****

रविवार की सुबह थी और वह आगामी परीक्षा की तय्यारी में तल्लीन थी. बाहर घंटी की आवाज़ सुनाई पड़ी तो ध्यान बंट गया. 

"हे भगवान! अब कौन आ गया? पढ़ाई छोड़ कर उठना पड़ेगा,"  वह यह सोच ही रही थी कि दरवाज़ा खुलने की आवाज़ आयी.  संभवतः पापा दरवाज़े के पास ही खड़े थे.  कोई जानने वाला ही रहा होगा.  दरवाज़ा खुलते ही दुआ-सलाम की आवाजें सुनाई पड़ी.  उसने चैन की सांस ली और अपना ध्यान फिर से कार्ल मार्क्स के चैप्टर पर लगा लिया था .   

पांच मिनट भी नहीं गुज़रे थे कि चपरासी अन्दर आया, "बिटिया, साहब कह रहे हैं कि सबके लिए चाय बना दो." 

"आप गैस पर तीन कप पानी रख दीजिये; मैं अभी आती हूँ." बीच में पढाई ना छोड़ने का शायद यह एक अधूरा सा प्रयास था.   

बैठक में चल रहा वार्तालाप कुछ सुनाई नहीं दे रहा था.  हाँ, यह ज़रूर समझ आ रहा था  कि आगंतुक बहुत सहमे-सहमे से बोल रहे थे.  शायद पापा के ओहदे की वजह से या फिर पता नहीं क्यों. 

"बिटिया पानी उबल रहा है," चपरासी ने फिर से याद दिलाया तो उसे उठना ही पड़ा था.  जैसे ही वह  दरवाज़े की ओर बढ़ी तो लगा कि ड्राइंग रूम में कुछ खलबली सी मची है.  पापा की आवाज़ एकदम ऊंची सुन कर वह एकाएक रुक गयी थी.  और फिर एक ज़ोरदार धड़ाम की आवाज़.  लगा किसी ने कोई बड़ा बक्सा उठा कर फेंका है. भाग कर खिड़की से बाहर झाँका तो देखा एक काला ब्रीफकेस लॉन में खुला पड़ा था  और सौ-सौ के नोटों की गड्डियाँ हरी घास पर बिखरी हुईं  थी .  

पापा की रोबीली आवाज़ हवा में गूँज रही, " निकल जाओ मेरे घर से.  तुम्हारी हिम्मत भी कैसे हुई?  साxxx! कxxxx!! हxxxxxx!!!  अगली बार ऐसा किया तो सीधे जेल भेज दूंगा."  सूट-बूट धारी दो व्यक्ति तेज़ी से नोट उठा कर ब्रीफकेस में भर रहे थे और पापा ने भड़ाक से दरवाज़ा बंद कर दिया था . वह भाग कर अपनी कुर्सी पर वापस चली गयी थी और किताबों में अपना सर घुसा लिया था मानो कुछ हुआ ही न हो.  

मम्मी जो शायद नहाने गयी हुईं थी अब बाहर आ गयी थी.

"क्या हुआ? कौन आया था?"  

पापा जो अब अन्दर आ गए थे  बोले, "पता नहीं कहाँ से आ जाते हैं ये लोग सुबह-सुबह धरम भ्रष्ट करने के लिए. पांच लाख रुपये लेकर आये थे. साले क्लोरोमाईसीटीन के कैप्सूल में हल्दी भरके बेचते है और लोगों की जान से खेलते हैं.  पिछले हफ्ते इनकी फैक्ट्री पर मेरे विभाग वालों ने  छापा  मारा  था.  मुझे रिश्वत देने आये थे.  रिश्वत देने की इन्होने सोची भी कैसे?"

"भगा दिया? अच्छा किया.  ऐसे लोगों के साथ ऐसे ही करना चाहिए,"  मम्मी का निष्काम उत्तर था. 

"मैडम, अब चाय पिलवाइए." 

***

 

माता-पिता से मिले यही मूल्य तो उसके व्यक्तित्व का भी हिस्सा थे.  ऐसे लोग आज क्यों नहीं हैं? कहाँ गए वह लोग?  भ्रष्टाचार का बोलबाला क्यों है? सोच-सोच कर उसका दिमाग गरम हो रहा था पर एक विवशता जकड़ती जा रही थी.  क्या करे ? कुछ तो करना ही होगा ऐसे भ्रष्टाचारी अफसर के खिलाफ़.  

"मैडम चाय लाऊं क्या?" चपरासी पूछ रहा था.

"हाँ. एक कप ब्लैक टी लाना." काले कारनामों को देख कर चाय भी काली ही पीनी होगी. यह सोचते हुए उसने एक कागज़ उठाया और विजिलेंस डिपार्टमेंट को भेजने के लिए, केस का पूरा ब्यौरा लिखना शुरू कर दिया. शाम होते न होते उसने वह पत्र कोरपोरेट कार्यालय को भेज दिया. यह कार्य किसी को तो करना ही होगा.   

अभी एक सप्ताह भी ना बीता था कि उसके तबादले का आर्डर आ गया, साथ ही निर्देश कि उसे उसी दिन पदमुक्त कर दिया जाये. बड़े साहब ने बुला कर उसे बस इतना ही कहा, "अब गाँव की इस दूरदराज शाखा में जाओ और पूरी ईमानदारी से काम करो और खुश रहो."  उनकी बातों में छिपा हुआ व्यंग साफ़ नज़र आ रहा था.  संभवतः कॉर्पोरेट कार्यालय में बैठे उनके किसी मित्र ने उन्हें इस शिकायत के बारे में बता दिया था.

"गलत माहौल में काम करने की अपेक्षा, मैं गाँव में पोस्टिंग पसंद करूंगी," यह कहते हुए वह साहब के कमरे से जब बाहर निकली तो साहब के निजी-सचिव ने धीरे से फुसफुसा कर कहा, "क्या ज़रुरत थी मैडम बिना-बात पंगा लेने की? ये सब तो नौकरी में चलता ही है."


***


इस बात को लगभग एक वर्ष गुज़र गया.  कहीं से उड़ती-उड़ती सी कुछ खबर सुनाई पडी थी कि बड़े साहब के विरूद्ध शायद विजिलेंस की इन्क्वायरी चालू हो गयी है.  केंद्रीय इन्वेषण ब्यूरो के छापे भी पड़े हैं.  अपनी आमदनी से कहीं ज्यादा उनके फिक्स डिपोजिट हैं.  कोई कह रहा था कि उनकी पत्नी के नाम पर कई मकान भी हैं.  गाँव में बैठे सब खबरें पूरी तरह मिल भी नहीं पाती हैं.  इसी तरह लगभग एक साल से ज्यादा बीत गया.   

अचानक मुख्यालय से आयी डाक में अपने नाम का लिफाफा देख वह चौंक गयी.  

"भला क्या होगा?" सोचते हुए उसने लिफाफा खोल तो पता लगा के आगामी शनिवार को बैंक के चेयरमैन साहब मुख्यालय में पधार रहे हैं.  उनके सम्मान में एक बड़ा फंक्शन है जिसमें शरीक होने के लिए उसे भी बुलाया गया है.  पास की शाखा वाले ने बताया कि मंडल के सभी अधिकारियों  को बुलाया गया है.  

शनिवार की शाम होते न होते वह इंगित स्थान पर पहुँच गयी.  दूर से आयी थी और  कुछ देर भी हो गयी  थी.  फंक्शन चालू हो गया था. बहुत बड़ा जलसा था.  आमंत्रित लोगों से हाल खचाखच भरा हुआ था.  बैंक के सब आला अधिकारी सूट-बूट पहने और टाई लगाये इधर से उधर व्यस्त घूम रहे थे.  हर दो सेकण्ड में कैमरे की फ़्लैश चमक रही थी.

आज बैंक के सालाना पुरूस्कार चेयरमैन  साहब के हाथों वितरित हो रहे थे. एक के बाद एक बड़ी ट्रोफीज़ बांटी जा रही थी, कोई सर्वोत्तम  ग्राहक सेवा के लिए तो कोई  बैंक में बिजनेस लाने के लिए. अचानक अपना नाम सुन  कर  उसे झटका सा लगा और वह अपने कानों पर यकीन नहीं कर पाई .

  

" ….  और अंत में सबसे महत्वपूर्ण ट्रोफी जाती है  सुश्री दीप्ति शर्मा को.  इन्होंने जो कार्य किया वह कोई महिला तो क्या कोई साहसी पुरुष भी नहीं कर सकता.  अपने वरिष्ठ अधिकारी के काले-कारनामों का भांडा फोड़ने के लिए बहुत साहस की आवश्यकता होती है और वह इस महिला अधिकारी ने  कर दिखाया. इसलिए मैं चेयरमैन साहब से दरख्वास्त करूंगा कि इस वर्ष का "व्हिसल ब्लोअर अवार्ड"  सुश्री दीप्ति शर्मा को प्रदान करें.  दीप्ति जी स्टेज पर आइये.  आप बैंक के अफसरों के लिए एक महत्वपूर्ण  रोल मॉडल हैं. … …"

 

स्टेज पर घोषणा चल रही थी और दीप्ति हॉल  की आखिरी पंक्ति से उठ, मन ही मन अपने माता -पिता को प्रणाम कर, सतर कंधे और सधे क़दमों से स्टेज की ओर चली तो पूरा हाल तालियों की गडगडाहट से गूँज उठा .

  

*****

  (सत्य घटनाओं से प्रेरित)                                   

29 comments:

Varsha Uke Nagpal said...

It needs a lot of guts to take such bold steps. Congratulations Ranjana, it is a very nice inspirational story.

Deepak Menon said...

Ranjana Bharij, aapne dil khush kar diya. Aapki kahani bahut saral tarike se likhi gayi hai, bar is choti kahani ka mehatvapuran uddesh bahut accha hai .. hum sab ne vachan liya tha jab humne SBI main naukri lee thi ke hum har halat main imandari se kaam karenge, aur jisne bhi yeh vachan boolne ki badtamizi kari hai, usko kisi na kisi prakar ka dand mila hai .. aap aur hum ab SBI main nahin hain, par hum sab hamesha SBI se mile rahenge aur "SBI ke Ideals" unche pad par rakhenge.
Shukriya - aapki kahani bahut achi lagi
Deepak Menon
www.lovelaughter.net

Unknown said...

Jiji, this story really takes the cake.You have penned it down in a most simple and realistic manner.I think it will be apt to say a real 'fauji' (honest) idealism.I salute you for such an inspirational story !!! Jiji please keep up the good work. 'Dil ye mange more'
Warm Regards and A Very Happy Deepawali
purnima

Unknown said...

रंजना जी आपकी कहानी आज बैंकों मे चल रही परिस्थिति को बहुत अच्छे से बयान करती है !लेकिन ये भी सच है कि अभी भी कुछ सच्चे इमानदार विसिल ब्लोवर है. लेकिन उनकी विसिल सुनने वाले कान अभी कम हैं ! आपकी कहानी का शीर्षक " कहाँ गये वो लोग " बहुत सामयिक है! बहुत अच्छी कहाँई लिखी है आपने! बधाई की पात्र हैं आप !

Anonymous said...

Bal Gupta काश ये सच में हो पाता!

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D.k. Gupta on Facebook
Now it can be possible in MODI RAJ.

Anonymous said...

Phool Gupta on FB
Really inspiring

Anonymous said...

N.r. Sharma on FB
Behatareen. Country needs many such whistleblowers to cleanse the system. May their tribe increase.

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Deepak Chatterjee on FB
Nice reading. It took me time as my Hindi reading is not good enough.

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Anil Gulati on FB
Had it been a real instance, it would have been wonderful!

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Dinesh Kumar Jain on FB
Your way of writing a story is too good. ..keep writing. ...

Anonymous said...

Ravindra Nath Arora on FB

अति सुन्दर! वास्तव में ऐसे लोग अब कहाँ मिलेंगे? लेकिन अब एक आशा की किरण जगी है, मोदी जी के प्रधान मंत्री बनाने से. मैंने अपने जीवन में यह कल्पना भी नहीं की थी की ऐसा चरित्रवान पुरुष भी कभी देश का प्रधान मंत्री बनेगा। इस सुंदर एवं प्रेरणा दायक लघुकथा के लिए धन्यवाद !

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Vijay Gupta on FB
Ranjana the bold and BEBAAK as usual.God bless you and the tribe of honest people.

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Krishan Gopal Dewan on FB

आप ने अत्यंत ही मार्मिक भाषा में विस्तार पूर्वक वर्णन किया हे। परन्तु उस लिंक का वर्णन नहीं किया जिस से भ्रष्ट अधिकारी के विरुद्ध कारवाई हुई।

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Rajesh Ailawadi on FB

A very inspiring story but I have not seen such dramatic ends.

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Gulshan Dhingra on FB

A person is always looking outside for strength and confidence, but it comes from within. It is there all of the time. A very well narrated story ! Indeed

Anonymous said...

Dinesh Kumar Jain on FB

A good take on the story which was often narrated with Glee in SBI circles.Very well written....

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Shamsher Bahadur on FB

Gud one Mam

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Subhash Dawkhar on FB

Inspirational

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Bal Gupta on FB
Very interesting and flowing narrative of a curse of Indian Economy n Society over decades!
This cancer needs to be clinically culled out of the System!

Anonymous said...

Sushil Ojha on FB
दीप्ति हॉल की आखिरी पंक्ति से उठ मन ही मन अपने माता -पिता को प्रणाम कर सतर कंधे और सधे क़दमों से स्टेज की ओर चली तो पूरा हाल तालियों की गडगडाहट से गूँज उठा । और हम सब भी आखिरी पंक्ति से उठ मन ही मन आपको और अपने माता -पिता को प्रणाम कर देखें तो पायेंगे कि यहीं हैं ये सब लोग देखने वाली दृष्टि चाहिये। Approved, Not Approved, Note Approved का अच्छा उपयोग किया गया है आपके अंदर बसे लेखन कौशल द्वारा । बधायी दीप्ति शर्मा जैसी श्रीमति रंजना भारीज जी को इस शुभ दीपावली पर

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Rimjhim Chhabra on FB
very Inspiring.

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Rashmi Duggal on FB

Great Ma'am

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Ramesh Mahipal on FB

यह कहानी बैंकों मे चल रही परिस्थिति को बहुत अच्छे से बयान करती है। लेकिन उनकी विसिल सुनने वाले कान अभी बहुत कम हैं। जिस विज़ीलँस विभाग के नाम का आपने उल्लेख किया, वहाँ के अधिकारी किस विचार धारा का अनुपालन करते हैं? यह भी सोचनीय है। कभी कभी अन्याय के दर्शन भी देखने को मिल जाते हैं। लेकिन ये भी सच है कि अभी भी कुछ सच्चे व इमानदार अधिकारी है। आपकी इस रोचक कहानी के लिए बहुत बहुत बधाई।………….

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Gopalasamudram Subramanian on FB

The first complete short story in Hindi that I managed to read, made an effort and did it, took some time and relished the writing. Hope such things do happen in the bank

Anonymous said...

Sk Kapoor on FB
A nicely worded story written in beautiful manner.

Anonymous said...

S.b. Agarwal on FB
What a nice story !!!!

Anonymous said...

Susheel Kapur on FB
You are doing great job.

Anonymous said...

Jugta Singh on FB
Very nice.Modi will be very happy.