मेघदूत
(स्व. श्रीमती सरला शर्मा की पुस्तक "कालिदास कथासार" से साभार )
(स्व. श्रीमती सरला शर्मा की पुस्तक "कालिदास कथासार" से साभार )
पूर्व मेघ
दण्ड
सुनकर यक्ष के
जीवन का सम्पूर्ण उत्साह
समाप्त हो गया और वह दण्ड की अवधि व्यापन हेतु दुखी मन से रामगिरि
आश्रम में चला गया। वहाँ माता जानकी के स्नान से पवित्र हुई बावलियाँ और सरोवर थे।
आश्रम में घनी छाया प्रदान करने वाले विशाल वृक्ष भी थे। पर फिर भी यक्ष
को पत्नी-वियोग सताता रहा और इस विरह में वह सूख कर काँटा हो गया। उसके आभूषण भी ढीले
हो-हो कर उसके बदन
से गिरने लगे। पत्नी के बिना एक दिन भी न रह पाने वाले उस यक्ष ने कई
महीने रोते और विलाप
करते किसी भांति काट लिये
और जैसे-तैसे ग्रीष्म
ऋतु समाप्त हुई।
आषाढ़ मास
के प्रथम दिन उसने जब बादलों
से लिपटी पर्वतों की चोटियाँ देखी, तो कुबेर के उस सेवक को
अपनी पत्नी की बहुत याद आयी और वह अपने आंसू रोक नहीं पाया। उसका विरही मन अपनी
पत्नी के लिए व्याकुल होने लगा। वह सोचने लगा कि आषाढ़ समाप्त होते ही सावन आ जायेगा
और उस समय मेरी प्रिय पत्नी अपने आप को कैसे संभाल पायेगी। क्यों न मैं इन मेघों द्वारा अपना
कुशल सन्देश अपनी प्रिय पत्नी को भेज दूँ?
यक्ष ने
तुरंत ही कुटज के पुष्पों से मेघों की पूजा की और उनका स्वागत किया। यक्ष को अपने
तन-मन की सुध न थी; वह यह भी
नहीं सोच पाया कि मेघ उसका सन्देश लेकर कैसे जायेंगे। वह मेघों के समक्ष गिड़गिड़ाने
लगा और बोला, "हे मेघ, तुमने पुष्कर और आर्वतक
मेघों के उच्च कुल में जन्म लिया है। तुम इंद्र के दूत हो। तुम संसार को ठंडक देते
हो। हे मेघ, तुम मेरा
सन्देश कृपया मेरी
प्रिय पत्नी तक
पहुंचा दो। तुम अलकापुरी नामक यक्षों की बस्ती में जाना जहाँ शिव जी की सुन्दर मूर्ति भी है।
हे मेघ, तुम सब
स्थानों पर पहुँच सकते हो तो मेरी पतिव्रता पत्नी तक भी अवश्य
पहुँच जाओगे। मंद- मंद पवन तुम्हे आगे बढ़ा रही है। चातक पक्षी भी बोल रहा है। अभी
बगुले भी आकाश में पंक्ति बांधे आते होंगे। तुम्हारी गर्जना सुन राजहंस भी कैलाश
पर्वत तक तुम्हारे साथ उड़ते चले
जायेंगे। हे मेघ, जिस
पर्वत पर तुम लिपटे हो उस पर भगवान राम चन्द्र जी के पैरों की छाप पड़ी है।
अच्छा पहले मैं तुम्हे मार्ग समझा दूँ फिर सन्देश बताऊँगा।
देखो जब
मार्ग में तुम थक
जाओ तो पर्वत के शिखरों पर विश्राम कर लेना। जब तुम में जल घट जाये तो
झरनों से पानी ले लेना। देखो सामने इन्द्र-धनुष चमक रहा है। इसे धारण कर
तुम्हारी श्यामल देह श्री
कृष्ण जी के समान प्रतीत होगी और मार्ग
में सिद्धों की भोली- भाली स्त्रियाँ आँखें फाड़-फाड़ कर तुम्हे
देखेंगी।
हे मेघ, तुम
उत्तर दिशा की ओर घूम जाना। वहाँ कृषक
पत्नियाँ तुम पर आस लगाये बैठी होंगी। वहाँ से माल देश के खेतों पर बरस
कर तुम पश्चिम दिशा की ओर मुड़ जाना। इसके पश्चात तुम उत्तर को
जाना। अब तुम आम्रकूट पर्वत पहुँच जाओगे। जब तुम उसकी आग
बुझाओगे तो वह भी
तुम्हे आश्रय देगा क्योंकि
यदि सच्चे मन से किसी का उपकार
करो तो वह भी
तुम्हारा आदर ही करता है।
यहाँ से
आगे बढ़ोगे तो विंध्याचल के पठार पर पहुँचोगे। वहां तुम्हें रेवा नदी दिखेगी।
रेवा नदी से तुम अपने में जल भर लेना और भारी-भरकम होकर ही आगे बढ़ना क्योंकि खाली
हाथ आने वाले का कोई
स्वागत नहीं करता। यदि तुम भरपूर हो तो सब तुम्हारा आदर करेंगे।
इस प्रकार मार्ग में तुम बिना रुके ही चले जाना।
हे मेघ, अब तुम दशार्ण देश के पास
पहुँच जाओगे। वहाँ तुम्हें
उपवन, गाँव और
मन्दिर दिखाई देंगे। वहां के वन काले जामुनों से लदे मिलेंगे। कुछ दिनों के लिए
वहाँ हंस भी आये हुए होंगे। दशार्ण देश की राजधानी विदिशा पहुँच कर तुम
वेत्रवती (बेतवा) नदी का मीठा जल पीना। वहाँ से तुम्हे यह ज्ञात हो जायेगा कि वहां के नागरिक
यौवन का कितना रस लेते हैं। वहाँ अपनी थकावट को मिटा कर, जुही की कलियों को सींच कर
और मालिनों से मित्रता कर तुम उत्तर की ओर चले जाना। हालाँकि उज्जयिनी वाला
मार्ग कुछ टेढ़ा पड़ेगा, परन्तु
वहाँ के राज-भवनों को अवश्य देखना। वहाँ पर चंचल चितवन वाली स्त्रियों पर तुम
रीझ जाओगे। उज्जयिनी की ओर जाते हुए निर्विन्ध्या नदी मिलेगी जो अत्यन्त मनमोहक
है, परन्तु तुम्हारे
विछोह में पतली हो गयी है और आस-पास के पीले पत्तों के कारण पीली भी पड़ गयी है। अतः उसमे
जल वर्षा कर उसे अवश्य भर देना।
फिर
अवन्ति देश पहुँच कर तुम उस विशाल नगरी उज्जयिनी पहुँच जाना। वह नगरी
ऐसी लगती है मानो पुण्यात्मा लोग स्वर्ग का कोई चमकीला भाग पृथ्वी पर उतार लाये हों। उस
नगरी में मतवाले सारसों की मीठी बोली और खिले हुए कमल के फूलों की सुगंध होगी।
शरीर को सुहाने वाली क्षिप्रा नदी की वायु स्त्रियों की थकावट दूर कर देती है।
उज्जयिनी के बाज़ारों में जहाँ तुम्हे
करोड़ों मोतियों की मालाएं दिखेंगीं, वहीं लाखों करोड़ों सिप्पियां भी रखी मिलेंगी। साथ ही कहीं नीलम
बिछे दिखेंगे। उन्हें देख कर लगता है कि सारे समुद्र के रत्न यहीं आ गये हैं।
उज्जयिनी के लोग
एक कथा सुनाते मिलेंगे कि वहाँ वत्स देश के राजा ने उज्जयिनी के राजा प्रद्योत
की कन्या वासवदत्ता का हरण किया था। यहीं उनका ताड़
वृक्षों का उपवन था। यहीं नीलगिरि नामक हाथी मदोन्मत्त होकर इधर-उधर घूमता रहता था।
वहाँ
झरोखों से अगर का धुआं निकल रहा होगा और पालतू मोर नाच रहे होंगे। वहाँ तुम
अपनी थकावट दूर कर लेना। वहाँ
से तुम चण्डी के पति महाकाल के मन्दिर की ओर
जाना। वहाँ शिव जी के गण अत्यन्त आदर से
तुम्हारी ओर देखेंगे
क्योंकि तुम शिव जी के कण्ठ समान नीले हो। वहीं तुम गंधवती नदी भी देखोगे जो
पुरी के पास है और दक्षिणी समुद्र के निकट विन्ध्यपाद से निकलती है। इसका जल अत्यन्त सुगन्धित
होता है।
हे मेघ, तुम महाकाल के मंदिर में
संध्या होने से पूर्व ही पहुँच जाना और सूर्यास्त तक वहीं ठहरना। जब महादेव
जी की आरती होने लगे तो तुम भी गर्जना करना। इस प्रकार तुम्हें अपनी मन्द -मन्द
गर्जना का पूरा फल मिल जायेगा। संध्या को नृत्य करती नर्तकियों के घुँघरू बज रहे
होंगे। चँवर ढुलाते हुए जिनके
हाथों में कँगन चमक रहे होंगे,
उन स्त्रियों पर जब तुम्हारी ठण्डी-ठण्डी पानी की बून्दें
पडेंगीं, वो अपनी प्रेम
भरी नज़रें तुम पर डालेंगीं।
संध्या के
उपरान्त जब महाकाल ताण्डव नृत्य करने
लगें तो तुम
वृक्षों पर छा जाना।
ऐसा करने से शिव जी के ह्रदय में जो हाथी की त्वचा ओढ़ने की
इच्छा होगी वह भी पूरी हो
जायेगी और पार्वती
जी डर जायेंगी। बाद में तुम्हें पहचान कर
उनका डर दूर हो जायेगा। वे शिव जी में तुम्हारी असीम भक्ति को देखती रह जायेंगी।
वहाँ की स्त्रियाँ जब अपने प्रेमियों से मिलने हेतु निकलेंगीं, तब तुम बिजली चमका कर
उन्हें राह दिखाना, गरजना बरसना नहीं। नहीं तो
वे डर जायेंगीं। प्रातः
काल होते ही तुम वहाँ से चल देना। उस समय तुम सूर्य को मत ढकना क्योंकि वह कमल
पर पड़ी ओस को पोंछने आयेंगे।
हे मेघ, तुम्हारे तन की परछाई
तुम्हे चम्बल नदी के जल
में अवश्य दिखाई देगी। उसमें तैरती उज्ज्वल मछलियों को देखना और समझना कि वे तुम्हारी ओर
अपनी चंचल
प्रेम विभोर चितवन
चला रही हैं। उनका निरादर न करना।
वहाँ से
चल कर तुम देवगिरि पर्वत की ओर जाओगे जहाँ तुम चम्बल नदी से एकत्रित किया जल बरसा
दोगे। वहाँ धरती की गंध चारों ओर फैल जायेगी। उसी देवगिरि पर्वत पर स्कन्द भगवान
निवास करते हैं। तुम अपना जल बरसा कर उन्हें स्नान करा देना। स्कन्द भगवान कोई साधारण
देवता नहीं हैं। देवराज इन्द्र की सेना बचाने के लिए शिव जी ने जो अपना तेज
अग्नि में डाल कर एकत्रित किया था, कुमार स्कन्द उसी तेज से
उत्पन्न हुए हैं। तुम्हारी गर्जना सुन कर कार्तिकेय का मयूर भी नाचने
लगेगा।
स्कन्द भगवान की पूजा करके जब तुम आगे बढ़ोगे, तब तुम्हें सिद्ध लोग
और हाथों में वीणा लिए उनकी पत्नियाँ मिलेंगें परन्तु भीगने के भय से वे तुमसे
दूर-दूर रहेंगें। तब तुम चर्मण्वती (चम्बल) नदी का आदर करना। यह नदी राजा रन्तिदेव की
कीर्ति बन कर पृथ्वी पर बह रही है। इसे पार करके तुम दशपुर की ओर बढ़ जाना।
वहाँ से
चलकर ब्रह्मावर्त देश पर छाया करते हुए तुम कुरुक्षेत्र जाना
जो आज तक कौरवों-पाँडवों के घरेलू युद्ध के कारण विश्व में
बदनाम है और जहाँ अर्जुन ने अपने शत्रुओं पर अनगिनत बाण बरसाये थे। कौरवों और
पाण्डवों को बराबर प्रेम करने वाले बलराम जिस सरस्वती नदी का जल
पीते थे उसे यदि तुम भी पी लोगे तो बाहर से श्याम होते हुए भी तुम्हारा मन उज्जवल
हो जायेगा।
कुरुक्षेत्र से चल कर तुम कनखल पहुँच जाना जो
हरिद्वार के निकट बहुत महत्वपूर्ण तीर्थ स्थान है। कनखल में तुम्हें हिमालय से
उतरी हुयी गंगा जी मिलेंगीं, जिन्होंने सीढ़ी बन कर सगर के पुत्रों को
स्वर्ग पहुँचा दिया। वहाँ पहुँच कर तुम अपना पिछला भाग ऊपर उठा कर और आगे का भाग
नीचे कर जल पीना।
वहाँ से
चलकर, तुम
हिमालय पर बैठना जहाँ से
गंगा जी निकलती हैं। वहीं बैठ कर अपनी थकान मिटाना। गंगाजी की शिलाएं सदा कस्तूरी
मृग के बैठने से महकती हैं। हे मेघ, जब देवदार के वृक्षों में रगड़ खाने से वन में आग लग जाये तब तुम
तुरंत वर्षा करके उसे बुझा देना। शरभ जाति के हिरण यदि तुम्हे दुःख देने लगें तो
उन पर ओले बरसा देना ताकि वे तितर-बितर हो जायें। यदि कोई अकारण ही सताता है
तो उसे दण्ड देना ही चाहिये।
वहीं
तुम्हे शिवजी के पद चिन्ह मिलेंगें जिन पर लोग पुष्प अर्पित करते हैं। तुम भी वहाँ
झुक कर प्रदक्षिणा करना। जब वहाँ के बाँसों में से मधुर स्वर निकलते
हैं तो वहाँ की किन्नरियाँ त्रिपुर विजय के गीत गाना प्रारम्भ कर देती हैं। उस समय
यदि तुम भी मृदंग के समान शब्द करने लगोगे तो शिवजी के गीतों के संगीत के सभी अंश
पूरे हो जायेँगे।
हिमालय
पर्वत के सारे रमणीय स्थल देख कर तुम क्रौंचरंध्र से पार हो जाना। जब क्रौंच पर्वत
को विजय करने से कार्तिकेय
को अभिमान हो गया था, तब
महर्षि परशुराम ने ऐसा तीर चलाया था के क्रौंच पर्वत में छिद्र हो गया था। वही
क्रौंचरंध्र है और वर्षा ऋतु में पक्षी उसी छिद्र से मानसरोवर जाते हैं। वहीं से तुम भी उत्तर
दिशा में चले जाना। इस छिद्र में तुम
टेढ़े होकर इस प्रकार जाना जैसे
भगवान विष्णु बलि को छलने के लिए लम्बे और तिरछे होकर गए थे।
तदन्तर
तुम कैलाश पर्वत पहुँच जाओगे। कैलाश पर्वत को एक समय रावण ने हिला डाला था।
यह इतना चमकदार है कि देवताओं की पत्नियाँ इसमें अपना मुँह देखा करती
हैं। इसकी ऊंची-ऊंची चोटियाँ आकाश में फैली हैं। हे मेघ! तुम तो बिलकुल
श्यामवर्ण हो और वह
कैलाश पर्वत एकदम श्वेत। यह दृश्य कैसा सुन्दर लगेगा?
वहाँ पार्वतीजी शिवजी के हाथ में हाथ डाले स्वछन्द विचरण कर रहीं होंगी।
उस समय तुम उन पर वर्षा मत कर देना अपितु उनकी सहायता करना। कैलाश
पर्वत पर अनेक अप्सरायें अपने रत्नजटित कंगन तुम्हारे बदन में चुभा कर तुमसे पानी
निकलवा लेंगीं। उस समय यदि वे तुम्हारा पीछा ना छोड़ें, तो तुम भयंकर गर्जना
करके उन्हें डरा देना।
कैलाश पर्वत पहुँच कर, पहले तो तुम मानसरोवर का जल पीना, फिर ऐरावत हाथी का मन
बहलाना, और
फिर कल्प वृक्ष के पत्तों को धीरे-धीरे हिला देना। इस प्रकार नाना प्रकार से
क्रीड़ा करते हुए तुम कैलाश पर्वत पर मनमाना भ्रमण करना।
इसी कैलाश पर्वत की गोद में अलकापुरी बसी हुई है। वहाँ से निकली गंगा जी की शुद्ध स्वच्छ धारा ऐसी लगती है मानो
कामिनी के बदन से उसकी साड़ी
सरक गयी हो।
ऐसी सुन्दर अलकापुरी को देख कर तुम अवश्य पहचान जाओगे। ऊँचे-ऊँचे
भवनों वाली इस अलकापुरी में वर्षा के दिनों में हर समय बादल छाये रहते हैं।
***
उत्तर मेघ
हे
मेघ ! अलकापुरी की सर्वोच्च अट्टालिकायें सब तरह से तुम्हारे समान हैं।तुम्हारे पास बिजली की चमक है तो उनमें आभूषणों से चमचमाती महिलायें हैं।
तुम्हारे पास इन्द्रधनुष है तो उनके पास विभिन्न रंगों के चित्र हैं। यदि तुम
गर्जना करते हो तो उनमें भी मृदंग का स्वर सुनायी पड़ता है। यदि तुम अंदर से नील
वर्ण के हो तो उनके फर्श भी नीलम से जड़े हुए हैं और यदि तुम ऊँचाई पर हो तो
अलकापुरी में भी गगनचुम्बी अट्टालिकायें हैं।
यहाँ की कुलवधुएँ कमल के फूलों के आभूषण पहनती हैं और
अपने केशों में कुन्द पुष्पों की वेणी गूँथती हैं। वे मुँह पर फूलों का पराग
मलती हैं और अपने
कानों तथा माँग को भी पुष्पों से सजाती हैं।
यहाँ पर तुम्हें अनेक प्रकार के बारहमासी फूल मिलेंगे
जिन पर भँवरे मँडराते रहते हैं और जिन्हे हंसों की पंक्तियाँ घेरे रखती हैं। वहाँ हर समय मोर नाचते रहते हैं और
सदा चाँदनी खिली
रहती है।
वहाँ के निवासी यक्ष सदा प्रसन्न रहते
हैं। प्रणय के कलह की दाह ही वहाँ का कष्ट है। कभी किसी का वियोग नहीं
होता। सब सदा यौवनावस्था में ही रहते हैं। वहाँ पर यक्ष स्त्रियों के साथ
रमणीय स्थानों में बैठे कल्पवृक्ष का मधु पी रहे होंगें।
वहाँ की कन्यायें इतनी सुन्दर हैं कि देवता भी उनको
पाने के लिये लालायित रहते हैं। वे कल्पवृक्ष के नीचे बैठी खेला करती हैं।
वहाँ के
ऊँचे-ऊँचे भवनों में
बादल घुस जाते हैं। वहाँ अथाह संपत्ति वाले कामी व्यक्ति अप्सराओं के साथ बैठे
रहते हैं। वहाँ वैभ्राज नामक उपवन में किन्नर कुबेर का यशोगान कर
रहे होंगे। वहाँ की कामिनियाँ जब अपने प्रेमियों के पास से लौटती हैं तो मार्ग
में उनके श्रृंगार की वस्तुएँ बिखरी होती हैं। वहाँ विभिन्न रंगों के वस्त्र, मदिरा, पुष्प, कमल पत्र, विभिन्न प्रकार के आभूषण, लाक्षारस आदि सभी वस्तुएँ
कल्पवृक्ष से प्राप्त हो जाती हैं।
वहाँ के घोड़े तीव्र गति वाले होते हैं और वहाँ के
बड़े-बड़े हाथी मद बरसाते रहते हैं। शिवजी भी वहीं पर रहते हैं। अतः डर के मारे
कामदेव वहाँ निष्क्रिय हैं।
वहीं कुबेर के महल के उत्तर में
गोल सुन्दर फाटक वाला हमारा घर तुम्हें दिखायी पड़ेगा। उसके पास एक छोटा सा कल्पवृक्ष
है जिसे मेरी पत्नी ने अपने पुत्र समान पाला है। उस पर
अथाह फूल लगे होंगे। घर के अंदर प्रवेश करने के बाद तुम्हें एक बाओली मिलेगी
जिसकी सीढ़ियों पर नीलम जड़े हुए हैं। उसके पानी में स्वर्ण-कमल खिले होंगें। उसके जल
में हंस क्रीड़ा कर रहे होंगें। उसके निकट ही एक हस्त-निर्मित
पर्वत है जिसका शिखर नील मणि से मंडित है। उसके चारों ओर कदली फल के वृक्ष लगे होंगें।
देखो, मेरी पत्नी को वह पर्वत बहुत प्रिय
है। उस हस्त-निर्मित पर्वत के निकट ही एक माधवी-मण्डप
है जिसके पास कुरबक के वृक्ष हैं। लाल अशोक और मौलश्री के वृक्ष भी हैं। उन दोनों वृक्षों के
नीचे एक मणि-जटित चौकी है जिसके ऊपर
स्फटिक की शिला है। उस पर सोने की छड़ लगी हुई है जिस पर एक मोर नित्य संध्या-समय
आकर बैठता है। मेरी पत्नी उसे तालियाँ
बजा-बजा कर नचाया करती है।
हे
सज्जन , यदि तुम मेरे बताये सारे चिन्ह याद
रखोगे तो तुम अवश्य ही मेरा घर पहचान लोगे। पर मेरे
बिना मेरे घर की रौनक समाप्त हो गयी होगी और वहाँ बहुत सूना-सूना लग रहा होगा।
देखो
यदि तुम्हें मेरे घर के अंदर जाना हो तो तुम अपना छोटा रूप धारण करना और अपनी
बिजली को जुगनू के समान छोटी और कम चमकीली बना कर मेरे घर में झाँकना। वहाँ
दुबली-पतली, छोटे-छोटे दांतों और हरिणी के समान
सुन्दर नेत्र वाली, आगे को झुक कर धीरे-धीरे चलने वाली
जो कमनीय कामिनी तुम्हें दिखेगी वही
मेरी पत्नी है।
उसकी
सुंदरता देख कर तुम्हें प्रतीत होगा मानो ब्रह्मा जी ने
उसे स्वयं अपने हाथों से घड़ा है।
बिछुड़ी हुई चक्रवाकी के समान वियोगिनी, अल्प-भाषिणी और पद्मिनी की
भाँति सुन्दर मेरी उस पत्नी को देख कर तुम भली-भाँति
समझ जाओगे कि वह मेरा दूसरा प्राण है। विरह के दिन व्यतीत करते-करते वह
पीतवर्ण की और अति क्षीण हो गयी होगी।
रोते-रोते उसकी आँखें सूज गयी होंगीं और अधर सूख गये होंगें। उसका मुख उदास हो गया
होगा।
देखो
मेरे मित्र मेघ, वह या तो पूजा करते हुए मिलेगी या
मेरा चित्र बना रही होगी, या
फिर पिंजरे में बैठी अपनी मैना से बातें कर रही होगी। नहीं तो वह वीणा लिए
मेरे गीत गा रही होगी और विरह के दिन गिन रही
होगी। हे मित्र, दिन तो वह ज्यों-त्यों किसी तरह बिता ही देती होगी पर रात
बिताना उसके लिये बहुत कष्टकर होगा। इसलिए तुम अर्धरात्रि में
झरोखे में बैठ कर उसे देखना। दिन में तो उसके पास उसकी सखियाँ
होंगीं। अतः तुम रात्रि में जब उसकी सखियाँ सो जाएँ, तब
खिड़की से उसके पास पहुँचना। वह बेचारी वहीं कहीं धरती पर करवट लिये पड़ी होगी, चारों ओर आँसू बिखेरे होंगे और उसके केश छितरायें होंगें। वह
यह सोच कर नींद को बुलाती होगी कि मैं उसे स्वप्न में ही दिख जाऊँ। बिछड़ने के दिन
ही उसने अपने जूड़े की माला खोल दी थी और एक इकहरी सी चोटी बाँध ली थी। उसकी ऐसी
दशा देख कर तुम भी रो पड़ोगे।
मेरे
भाई, यह न समझना कि उस पतिव्रता का पति होने के कारण मैं इतना बोल रहा हूँ परन्तु यह तुम स्वयं ही देख लेना।
तुम्हें मिलने के पूर्व उसकी बाईं आंख और
बाईं जंघा, जिसे मैं स्वयम अपने हाथों से दबाया करता था, फड़क उठेगी।
हे
मित्र, यदि वह सो गयी हो तो उसे जगाना मत क्योंकि वह स्वप्न में मुझे ही देख रही होगी। जब वह जागे, तब उससे धीरे-धीरे बात करना नहीं तो वह डर जायेगी। उसे बता देना कि देवी
मैं तुम्हारे पति का सन्देश लेकर आया हूँ। यह सुन कर मेरी प्रिया तुम्हारा सन्देश
बहुत ध्यान से कान लगा कर सुनेगी क्योंकि पति का सन्देश पाकर स्त्रियों को बहुत
आनन्द का अनुभव होता है।
हे
मेघ, तुम उससे कहना कि तुम्हारा साथी
रामगिरि आश्रम में सकुशल है और तुम्हारी कुशलता जानना चाहता है। उसका मार्ग
तो ब्रह्मा ने रोक दिया है परन्तु वह भी तुम्हारी ही भांति तुम्हारे वियोग में दुखी है। उसने तुम्हारे लिये यह सन्देश भेजा है:
"हे प्रिये! मैं यहाँ बैठा हुआ
पियंगु की लता में तुम्हारा बदन,
हरिण की आँखों में
तुम्हारी आँखें, चन्द्रमा में तुम्हारा मुख, मोर-पंखों में तुम्हारे केश और नदी की लहरों में तुम्हारी चंचल
भौंहें देखता हूँ। जब मैं पत्थर की शिला पर गेरू से तुम्हारी रूठी हुई छवि और
स्वयं को तुम्हें मनाने के लिए तुम्हारे
पैरों में पड़ा चित्र बनाता हूँ तो मैं इतना अधीर हो जाता हूँ कि मैं भली-भाँति देख
भी नहीं पाता हूँ। हे देवी,
एक तो मैं स्वयं तुम्हारे
वियोग में दुखी हूँ, दूसरे यह कामदेव मुझे बहुत दुखी
करता है। इस वर्षा ऋतु में,
मैं तुम्हारे बिना यह दिन कैसे काटूँ? वनदेवता भी मेरी दयनीय दशा पर अश्रुपात करते हैं। हे चंचल
नेत्रों वाली, मैं यही मनाता हूँ कि दिन और रात
छोटे हो जाएँ। हे कल्याणी,
मैं किसी प्रकार अपने मन को धैर्य देता हूँ। तुम भी
धीरज रखना क्योंकि दु:ख-सुख तो सभी आनी-जानी वस्तु है। आगामी देव-उठनी एकादशी को मेरा श्राप समाप्त हो जायेगा। फिर शरद ऋतु में हम
अपनी सारी इच्छायें पूरी करेंगें। हे सांवली आँखोंवाली, इन सब बातों से तुम समझ लेना कि मैं सकुशल हूँ। हे प्यारी, तुम लोगों के इस बहकावे में मत आना कि विरह से प्रेम कम हो जाता है।
वास्तव में विरह में तो प्रेम बढ़ जाता है। "
हे
मेघ ! देखो प्रथम वियोग से दुखी अपनी भाभी को धैर्य बँधा कर और उनसे कुशल समाचार
प्राप्त करके तुम कैलाश पर्वत से शीघ्र ही मेरे पास लौट आना और यहाँ आकर मेरे
प्राणों की रक्षा करना। अब बताओ भाई , तुमने मेरा यह कार्य करने
का निश्चय तो कर ही लिया होगा। मैं जानता हूँ कि तुम्हें जो कार्य कह दिया
जाता है उसे तुम अवश्य ही पूरा करते हो। हे मित्र, पहले मेरी यह अनुचित प्रार्थना
स्वीकार करना। तत्पश्चात ही तुम अपना बरसाती रूप धारण कर यत्र-तत्र भ्रमण करना। मैं नहीं चाहता कि बिजली से तुम्हारा एक क्षण का भी
वियोग हो क्योंकि मैं स्वयँ भुक्तभोगी हूँ।
यक्ष की यह बातें सुनकर मेघ रामगिरि पर्वत से चल
दिया। पहाड़, पहाड़ियों, नदियों पर से होता हुआ
वह कुबेर की राजधानी अलकापुरी पहुँच गया। यक्ष की बताई पहचान से वहाँ उसने स्वर्ण के समान
देदीप्यमान भवन को तुरंत पहचान लिया जिसकी शोभा यक्ष के वहाँ न रहने से फीकी पड़
गयी थी। उसने देखा कि यक्ष की पत्नी धरती पर पड़ी है। उस विरही स्त्री
के प्राणों की रक्षा हेतु मेघ ने उसे यक्ष का पूरा सन्देश सुना दिया। यक्ष-पत्नी
भी अपने पति का समाचार पाकर प्रसन्न हो गयी।
यक्षराज कुबेर ने जब सुना कि यक्ष ने अपना
ह्रदय-विदारक कुशल सन्देश
अपनी पत्नी के पास मेघ
द्वारा भेजा है, तो
उसे बहुत दया आयी और उसने अपना श्राप वापस ले लिया और उन दोनों पति-पत्नी को पुनः
मिला दिया। इस मिलन से उनके सारे दुःख दूर हो गये और वे बहुत प्रसन्न हो गये। कुबेर ने उन्हें ऐसे सुख प्राप्त करने का प्रबंध कर दिया कि उन्हें भविष्य
में फिर
कभी दुःख न मिले।
*****
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