पहली यात्रा
(रंजना भारिज)
ठका ठक ...ठक, ठका ठक ...ठक, ठका ठक ...ठक। रात के साढ़े बारह बजे थे। लखनऊ मेल तेज़ी से लखनऊ की ओर जा रही थी। डिब्बे के सभी यात्री सोये हुए थे पर मीनाक्षी की आँखों में नींद कहाँ? उसका दिमाग तो अतीत की पटरियों पर असीमित गति से दौड़ रहा था। लगता था जैसे वर्षों पुरानी बेड़ियों के बंधन आज अचानक टूट गए हों ।
पचास वर्षीया मीनाक्षी दिल्ली में भारत सरकार में एक उच्च पद पर आसीन हैं। सैंकड़ो बार कभी सरकारी काम - काज के सिलसिले में तो कभी अपने निजी कार्यवश ट्रेन में सफ़र कर चुकी हैं। परन्तु आज की यात्रा उन सभी यात्राओं से कितनी भिन्न थी।
"चाय .. चाय ...चाय गरम" की आवाज़ सुनकर मीनाक्षी का ध्यान टूटा तो देखा ट्रेन बरेली स्टेशन पर खड़ी है। बरेली ? हाँ बरेली ही तो है। तीस साल पुराने बरेली और आज के बरेली स्टेशन में लेशमात्र भी फरक नहीं आया था। वही चाय-चाय की पुकार, वही लाल कमीज़ में भागते-दौड़ते कुली और वही यात्रियों की भगदड़।
"एक कप चाय देना," जैसे स्वप्न में ही मीनाक्षी ने कहा।
वही बेस्वाद कढ़ी हुई बासी चाय, वही कसैला सा स्वाद।हाँ, कुल्हड़ की जगह लिचपिचे से प्लास्टिक के गिलास ने ज़रूर ले ली थी।
कहीं कुछ भी तो नहीं बदला था। पर इन पच्चीस वर्षों में मीनाक्षी में ज़रूर बहुत बदलाव आ गया था। माँ के डर से बालों में बहुत सारा तेल लगा कर एक चोटी बनाने वाली मीनाक्षी के बाल आज सिल्वी के सधे हाथों से कटे उसके कन्धों पर झूल रहे थे। पच्चीस वर्ष पहले की दबी सहमी इकहरे बदन की वह लड़की आज आत्म-विश्वास से भरपूर एक गौरवशाली महिला थी। चाय का गिलास हाथ में पकड़े, दिमाग फिर अतीत की ओर चला पड़ा था।
"मम्मी आज सुषमा का जन्म दिन है,उसने अपने घर बुलाया है। मैं जाऊं?"
"सुषमा? कौन सुषमा?" माँ का रोबदार स्वर कानों में गूंजा तो मीनाक्षी सहम सी गयी थी।
"मेरी क्लास में पढ़ती है, आज उसका जन्म दिन है," मुँह से अटक-अटक कर शब्द निकले थे।
"कौन-कौन आ रहा है? माँ ने मैगजीन से सर उठाये बगैर ही पूछा था।
"यह तो पता नहीं पर मम्मी मैं जल्दी ही आ जाऊँगी," आशा बंधती देख मीनाक्षी ने जल्दी-जल्दी कहा था।
"उसके घर में और कौन कौन हैं?"
"उसकी मम्मी और भाई। पापा तो ट्रान्सफर होकर इलाहाबाद चले गए हैं। ये लोग भी अगले शनिवार को जा रहे हैं।"
"भाई बड़ा है या छोटा?"
"भाई उससे दो साल बड़ा है।"
"तुम नहीं जाओगी किसी सुषमा-वुशमा के यहाँ," माँ के स्वर में दृढ़ता थी।
"पर क्यों मम्मी ? वो लोग अब इलाहाबाद चले जायेंगे। मैं उससे अब कभी मिल भी नहीं पाऊँगी," मीनाक्षी ने साहस जुटा कर कहा था।
"बेकार बहस मत करो। जाकर पढाई करो।"
"पर मम्मी, सुषमा मेरा इंतज़ार कर रही होगी।"
"कह दिया ना एक बार ....बड़ों का कहना मानना भी सीखो कभी।"
माँ ने पत्रिका से सर उठा कर जब उसे घूर कर देखा तो वो कितना सहम गयी थी। चुप-चाप अपने कमरे में अर्थशास्त्र की किताब खोल कर बैठ गयी थी। खुली किताब पर कितनी ही देर तक टप -टप आंसू गिरते रहे थे।
"मेम साब, चाय के पैसे दे दो। ट्रेन चलने वाली है," चाय वाले की आवाज़ सुन कर मीनाक्षी फिर वर्तमान में लौट आयी थी। इटली से लाये हुए विशुद्ध चमड़े के बैग से पांच रुपये का सिक्का निकाल कर उसने चाय वाले को दिया तो उसका ध्यान लाल नेल पौलिश से रंगे अपने नाखूनों पर चला गया। माँ का वह कठोर अनुशासन क्या उसे ऐसे गाढ़े रंग की नेल पौलिश लगाने की अनुमति देता? उस कठोर अनुशासन के माहौल में पुस्तकों की दुनिया से बाहर निकलने की मीनाक्षी की कभी हिम्मत ही नहीं हुई थी। मार्शल, रॉबिन्स और कीन्स की अर्थशास्त्र की परिभाषाओं के बाहर भी एक दुनिया है, उसका पता उसे तब चला जब उसका चयन इंडियन इकॉनोमिक सर्विस में हो गया। तब से आज तक, उसने मुड़ कर पीछे नहीं देखा था। माँ का पांच साल पहले निधन हो गया था।
इतने सालों के बाद सुषमा भी जब उसे कुछ दिन पहले फेसबुक पर मिल गयी तो उसकी ख़ुशी का ठिकाना न रहा। कितनी देर तक दोनों ने फ़ोन पर बातें की थी। सुषमा की शादी हो गयी थी, दो बेटियाँ भी थी। मीनाक्षी ने तो न शादी की थी न ही करने का इरादा था। वो तो अपने काम की दुनिया में ही शायद खुश थी।
कल सुबह जब सुषमा का फ़ोन आया तो मीनाक्षी को ख्याल आया कि उसकी बेटी की शादी का कार्ड भी तो आया था जो मेज़ की दराज में डाल कर वह भूल गयी थी।
"क्या? तू अभी तक दिल्ली में ही बैठी है? आज शाम को लेडीज़ संगीत है, कल शादी है। कब पहुँच रही है?"
"नहीं सुषमा। मैं नहीं आ पाऊँगी। दफ्तर में ज़रूरी मीटिंग है।"
"मीटिंग गई भाड़ में। मेरे घर में पहली शादी है और तू नहीं आयेगी?"
सुषमा ने क्रोध दिखाया तो मीनाक्षी ने उसे टालने को कह दिया, "अच्छा, देखती हूँ।"
"देखना-वेखना कुछ नहीं। बस पहुँच जा," कह कर सुषमा ने फ़ोन काट दिया।
मीनाक्षी फिर फाइलें देखने में लग गयी थी। उसे पता था कि शादी और मीटिंग में किसे प्राथमिकता देनी है। वर्षों के कठोर अनुशासन ने उसकी सोच को ऐसा ही बना दिया था। पर काम करने में दिल नहीं लगा तो चपरासी को हुक्म दिया, " ये सब फाइलें कार में रख दो। मैं घर जा रही हूँ।"
पर पता नहीं क्यों, घर पहुँचते-पहुँचते जैसे दिल में एक कश्मकश सी शुरू हो गयी। क्या उसे लखनऊ जाना चाहिए? पर मीटिंग का क्या होगा? क्या ज़िन्दगी सिर्फ दफ्तर की फाइलों और घर की चहारदीवारी में ही सीमित है? रिश्तों का इसमें कोई स्थान नहीं है ?
उसके मन में यह अंतर्द्वंद चल ही रहा था कि नीचे के फ्लैट से कुछ शोर सा सुनाई दिया।
"तू कहीं नहीं जायेगी। मैंने कह दिया न," पड़ोसन मिसेज़ गुप्ता अपनी सोलह वर्षीया बेटी कनुप्रिया से कह रही थी।
"क्यों? क्यों न जाऊं? पूजा मेरा इंतज़ार कर रही होगी।"
"मुझे ना पसंद है ये तेरी पूजा-वूजा।"
"नहीं पसंद है तो मैं क्या करूँ? मैंने कब कहा कि आप उससे दोस्ती कर लीजिये," कनुप्रिया ने पलट कर जवाब दिया था।
"उसका आज बर्थ डे है। मुझे तो वहाँ जाना ही है।" कनुप्रिया के जवाब में ढिठाई थी।
मीनाक्षी के मन में एक खलबली सी मच गयी और चाहे अनचाहे वह कान लगा कर उनकी बातें सुनने लगी।
"मुझे ना पसन्द आवे है ये तेरा सहेलीपन। वो छोरी ठीक ना है। तू उसके घर ना जावेगी, बस मैंने कह दिया।" मिसेज़ गुप्ता ने गुस्से में कहा।
"क्यों? क्या खराबी है उसमे?" कनुप्रिया ने फिर सवाल दागा।
" ऐ छोरी ज़बान लड़ावे है? कान खोल के सुन ले। जो छोरी मुझे पसन्द ना है, तू उससे दोस्ती ना रख सके है।"
जैसे - जैसे कनुप्रिया और उसकी माँ की तकरार बढ़ रही थी, मीनाक्षी के दिल में घबराहट का एक तूफ़ान सा उठ रहा था। पचास वर्षीया प्रौढ़ा का दिल फिर सोलह वर्षीया किशोरी की तरह धड़कने लगा था। साथ ही लगा कि पड़ोसियों की घरेलू बातें सुनना अच्छी बात नहीं है। वह उठ कर खिड़की बन्द करने लगी तो कनुप्रिया की आवाज़ फिर कानों में पड़ी
"लड़कों को तो छोड़ो, अब लड़कियों से दोस्ती करने के लिए भी माँ बाप से परमीशन लेनी पड़ेगी क्या? भैया को तो आप कुछ कहती नहीं हैं।"
मीनाक्षी के दिल में धुक-धुक होने लगी। क्या कनुप्रिया अपनी सहेली के घर जायेगी या फिर वह भी अपने कमरे में जाकर अर्थशास्त्र की किताब के पन्नों को आंसुओं से भिगोएगी ? कनुप्रिया को जाना ही चाहिये। कनुप्रिया ज़रूर जायेगी, उसका बागी दिल कह रहा था। पर नहीं, बेचारी कनु माँ से बगावत कैसे करेगी? माँ नाराज़ हो गयी तो? पर माँ भी तो अत्याचार कर रही है। सोच-सोच कर मीनाक्षी के दिमाग में हथौडे बजने लगे थे।
हीरो पुक के स्टार्ट होने की आवाज़ ने मीनाक्षी को जैसे सोते से जगा दिया। एक्सेलेरेटर की घूं ...घूं ...घूं .ऊँ ...ऊँ ...ऊँ ..... कनुप्रिया पूजा से मिलने चली गयी थी। आज की पीढ़ी कितनी भिन्न है, कितनी दबंग है। क्या मीनाक्षी कभी अपनी किसी सहेली के घर जा पायी थी? अर्थशास्त्र की पुस्तकों के बाद दफ्तर की फाइलें ही उसकी नियति बन गए थे। पेपर, नोट्स, नोटिंग्स, लक्ष्य , लक्ष्य और लक्ष्य, क्या इन सब के बाहर भी कोई दुनिया है? सोचते सोचते कब शाम हो गयी , पता ही नहीं चला। नीचे कनुप्रिया वापस आ गयी थी। साथ में शायद पूजा भी थी।
दोनों की खिलखिलाहट भरी हंसी सुन कर मीनाक्षी के दिल में एक टीस सी उठी।
कर्तव्य, काम और ड्यूटी के आगे भी एक दुनिया है जिसमे जीते जागते इंसान रहते हैं। अचानक यह एहसास बहुत तेज़ हो गया और फिर जैसे घने बादल छंट गये। उसका हाथ फोन की ओर बढ़ गया, "हेलो, सुपर ट्रेवल्स? एक टिकट लखनऊ का आज रात का , किसी भी क्लास में, फौरन भेज दीजिये। समय कम है, क्या आपका आदमी मुझे टिकट स्टेशन पर ही दे सकता है?"
और मीनाक्षी ने अपना अटैची पैक करनी शुरू कर दी।
"हाँ, मेम साब। कुली चाहिए?" लखनऊ स्टेशन पर कुली पूछ रहा था।
आखिरकार, मीनाक्षी लखनऊ पहुँच गयी , दिल्ली से लखनऊ की यात्रा पूरी हुई या उसके जीवन की नयी यात्रा शुरु हुई? यह सोचते हुए वह आगे बढ़ गई.
(रंजना भारिज)
ठका ठक ...ठक, ठका ठक ...ठक, ठका ठक ...ठक। रात के साढ़े बारह बजे थे। लखनऊ मेल तेज़ी से लखनऊ की ओर जा रही थी। डिब्बे के सभी यात्री सोये हुए थे पर मीनाक्षी की आँखों में नींद कहाँ? उसका दिमाग तो अतीत की पटरियों पर असीमित गति से दौड़ रहा था। लगता था जैसे वर्षों पुरानी बेड़ियों के बंधन आज अचानक टूट गए हों ।
पचास वर्षीया मीनाक्षी दिल्ली में भारत सरकार में एक उच्च पद पर आसीन हैं। सैंकड़ो बार कभी सरकारी काम - काज के सिलसिले में तो कभी अपने निजी कार्यवश ट्रेन में सफ़र कर चुकी हैं। परन्तु आज की यात्रा उन सभी यात्राओं से कितनी भिन्न थी।
"चाय .. चाय ...चाय गरम" की आवाज़ सुनकर मीनाक्षी का ध्यान टूटा तो देखा ट्रेन बरेली स्टेशन पर खड़ी है। बरेली ? हाँ बरेली ही तो है। तीस साल पुराने बरेली और आज के बरेली स्टेशन में लेशमात्र भी फरक नहीं आया था। वही चाय-चाय की पुकार, वही लाल कमीज़ में भागते-दौड़ते कुली और वही यात्रियों की भगदड़।
"एक कप चाय देना," जैसे स्वप्न में ही मीनाक्षी ने कहा।
वही बेस्वाद कढ़ी हुई बासी चाय, वही कसैला सा स्वाद।हाँ, कुल्हड़ की जगह लिचपिचे से प्लास्टिक के गिलास ने ज़रूर ले ली थी।
कहीं कुछ भी तो नहीं बदला था। पर इन पच्चीस वर्षों में मीनाक्षी में ज़रूर बहुत बदलाव आ गया था। माँ के डर से बालों में बहुत सारा तेल लगा कर एक चोटी बनाने वाली मीनाक्षी के बाल आज सिल्वी के सधे हाथों से कटे उसके कन्धों पर झूल रहे थे। पच्चीस वर्ष पहले की दबी सहमी इकहरे बदन की वह लड़की आज आत्म-विश्वास से भरपूर एक गौरवशाली महिला थी। चाय का गिलास हाथ में पकड़े, दिमाग फिर अतीत की ओर चला पड़ा था।
"मम्मी आज सुषमा का जन्म दिन है,उसने अपने घर बुलाया है। मैं जाऊं?"
"सुषमा? कौन सुषमा?" माँ का रोबदार स्वर कानों में गूंजा तो मीनाक्षी सहम सी गयी थी।
"मेरी क्लास में पढ़ती है, आज उसका जन्म दिन है," मुँह से अटक-अटक कर शब्द निकले थे।
"कौन-कौन आ रहा है? माँ ने मैगजीन से सर उठाये बगैर ही पूछा था।
"यह तो पता नहीं पर मम्मी मैं जल्दी ही आ जाऊँगी," आशा बंधती देख मीनाक्षी ने जल्दी-जल्दी कहा था।
"उसके घर में और कौन कौन हैं?"
"उसकी मम्मी और भाई। पापा तो ट्रान्सफर होकर इलाहाबाद चले गए हैं। ये लोग भी अगले शनिवार को जा रहे हैं।"
"भाई बड़ा है या छोटा?"
"भाई उससे दो साल बड़ा है।"
"तुम नहीं जाओगी किसी सुषमा-वुशमा के यहाँ," माँ के स्वर में दृढ़ता थी।
"पर क्यों मम्मी ? वो लोग अब इलाहाबाद चले जायेंगे। मैं उससे अब कभी मिल भी नहीं पाऊँगी," मीनाक्षी ने साहस जुटा कर कहा था।
"बेकार बहस मत करो। जाकर पढाई करो।"
"पर मम्मी, सुषमा मेरा इंतज़ार कर रही होगी।"
"कह दिया ना एक बार ....बड़ों का कहना मानना भी सीखो कभी।"
माँ ने पत्रिका से सर उठा कर जब उसे घूर कर देखा तो वो कितना सहम गयी थी। चुप-चाप अपने कमरे में अर्थशास्त्र की किताब खोल कर बैठ गयी थी। खुली किताब पर कितनी ही देर तक टप -टप आंसू गिरते रहे थे।
"मेम साब, चाय के पैसे दे दो। ट्रेन चलने वाली है," चाय वाले की आवाज़ सुन कर मीनाक्षी फिर वर्तमान में लौट आयी थी। इटली से लाये हुए विशुद्ध चमड़े के बैग से पांच रुपये का सिक्का निकाल कर उसने चाय वाले को दिया तो उसका ध्यान लाल नेल पौलिश से रंगे अपने नाखूनों पर चला गया। माँ का वह कठोर अनुशासन क्या उसे ऐसे गाढ़े रंग की नेल पौलिश लगाने की अनुमति देता? उस कठोर अनुशासन के माहौल में पुस्तकों की दुनिया से बाहर निकलने की मीनाक्षी की कभी हिम्मत ही नहीं हुई थी। मार्शल, रॉबिन्स और कीन्स की अर्थशास्त्र की परिभाषाओं के बाहर भी एक दुनिया है, उसका पता उसे तब चला जब उसका चयन इंडियन इकॉनोमिक सर्विस में हो गया। तब से आज तक, उसने मुड़ कर पीछे नहीं देखा था। माँ का पांच साल पहले निधन हो गया था।
इतने सालों के बाद सुषमा भी जब उसे कुछ दिन पहले फेसबुक पर मिल गयी तो उसकी ख़ुशी का ठिकाना न रहा। कितनी देर तक दोनों ने फ़ोन पर बातें की थी। सुषमा की शादी हो गयी थी, दो बेटियाँ भी थी। मीनाक्षी ने तो न शादी की थी न ही करने का इरादा था। वो तो अपने काम की दुनिया में ही शायद खुश थी।
कल सुबह जब सुषमा का फ़ोन आया तो मीनाक्षी को ख्याल आया कि उसकी बेटी की शादी का कार्ड भी तो आया था जो मेज़ की दराज में डाल कर वह भूल गयी थी।
"क्या? तू अभी तक दिल्ली में ही बैठी है? आज शाम को लेडीज़ संगीत है, कल शादी है। कब पहुँच रही है?"
"नहीं सुषमा। मैं नहीं आ पाऊँगी। दफ्तर में ज़रूरी मीटिंग है।"
"मीटिंग गई भाड़ में। मेरे घर में पहली शादी है और तू नहीं आयेगी?"
सुषमा ने क्रोध दिखाया तो मीनाक्षी ने उसे टालने को कह दिया, "अच्छा, देखती हूँ।"
"देखना-वेखना कुछ नहीं। बस पहुँच जा," कह कर सुषमा ने फ़ोन काट दिया।
मीनाक्षी फिर फाइलें देखने में लग गयी थी। उसे पता था कि शादी और मीटिंग में किसे प्राथमिकता देनी है। वर्षों के कठोर अनुशासन ने उसकी सोच को ऐसा ही बना दिया था। पर काम करने में दिल नहीं लगा तो चपरासी को हुक्म दिया, " ये सब फाइलें कार में रख दो। मैं घर जा रही हूँ।"
पर पता नहीं क्यों, घर पहुँचते-पहुँचते जैसे दिल में एक कश्मकश सी शुरू हो गयी। क्या उसे लखनऊ जाना चाहिए? पर मीटिंग का क्या होगा? क्या ज़िन्दगी सिर्फ दफ्तर की फाइलों और घर की चहारदीवारी में ही सीमित है? रिश्तों का इसमें कोई स्थान नहीं है ?
उसके मन में यह अंतर्द्वंद चल ही रहा था कि नीचे के फ्लैट से कुछ शोर सा सुनाई दिया।
"तू कहीं नहीं जायेगी। मैंने कह दिया न," पड़ोसन मिसेज़ गुप्ता अपनी सोलह वर्षीया बेटी कनुप्रिया से कह रही थी।
"क्यों? क्यों न जाऊं? पूजा मेरा इंतज़ार कर रही होगी।"
"मुझे ना पसंद है ये तेरी पूजा-वूजा।"
"नहीं पसंद है तो मैं क्या करूँ? मैंने कब कहा कि आप उससे दोस्ती कर लीजिये," कनुप्रिया ने पलट कर जवाब दिया था।
"उसका आज बर्थ डे है। मुझे तो वहाँ जाना ही है।" कनुप्रिया के जवाब में ढिठाई थी।
मीनाक्षी के मन में एक खलबली सी मच गयी और चाहे अनचाहे वह कान लगा कर उनकी बातें सुनने लगी।
"मुझे ना पसन्द आवे है ये तेरा सहेलीपन। वो छोरी ठीक ना है। तू उसके घर ना जावेगी, बस मैंने कह दिया।" मिसेज़ गुप्ता ने गुस्से में कहा।
"क्यों? क्या खराबी है उसमे?" कनुप्रिया ने फिर सवाल दागा।
" ऐ छोरी ज़बान लड़ावे है? कान खोल के सुन ले। जो छोरी मुझे पसन्द ना है, तू उससे दोस्ती ना रख सके है।"
जैसे - जैसे कनुप्रिया और उसकी माँ की तकरार बढ़ रही थी, मीनाक्षी के दिल में घबराहट का एक तूफ़ान सा उठ रहा था। पचास वर्षीया प्रौढ़ा का दिल फिर सोलह वर्षीया किशोरी की तरह धड़कने लगा था। साथ ही लगा कि पड़ोसियों की घरेलू बातें सुनना अच्छी बात नहीं है। वह उठ कर खिड़की बन्द करने लगी तो कनुप्रिया की आवाज़ फिर कानों में पड़ी
"लड़कों को तो छोड़ो, अब लड़कियों से दोस्ती करने के लिए भी माँ बाप से परमीशन लेनी पड़ेगी क्या? भैया को तो आप कुछ कहती नहीं हैं।"
मीनाक्षी के दिल में धुक-धुक होने लगी। क्या कनुप्रिया अपनी सहेली के घर जायेगी या फिर वह भी अपने कमरे में जाकर अर्थशास्त्र की किताब के पन्नों को आंसुओं से भिगोएगी ? कनुप्रिया को जाना ही चाहिये। कनुप्रिया ज़रूर जायेगी, उसका बागी दिल कह रहा था। पर नहीं, बेचारी कनु माँ से बगावत कैसे करेगी? माँ नाराज़ हो गयी तो? पर माँ भी तो अत्याचार कर रही है। सोच-सोच कर मीनाक्षी के दिमाग में हथौडे बजने लगे थे।
हीरो पुक के स्टार्ट होने की आवाज़ ने मीनाक्षी को जैसे सोते से जगा दिया। एक्सेलेरेटर की घूं ...घूं ...घूं .ऊँ ...ऊँ ...ऊँ ..... कनुप्रिया पूजा से मिलने चली गयी थी। आज की पीढ़ी कितनी भिन्न है, कितनी दबंग है। क्या मीनाक्षी कभी अपनी किसी सहेली के घर जा पायी थी? अर्थशास्त्र की पुस्तकों के बाद दफ्तर की फाइलें ही उसकी नियति बन गए थे। पेपर, नोट्स, नोटिंग्स, लक्ष्य , लक्ष्य और लक्ष्य, क्या इन सब के बाहर भी कोई दुनिया है? सोचते सोचते कब शाम हो गयी , पता ही नहीं चला। नीचे कनुप्रिया वापस आ गयी थी। साथ में शायद पूजा भी थी।
दोनों की खिलखिलाहट भरी हंसी सुन कर मीनाक्षी के दिल में एक टीस सी उठी।
कर्तव्य, काम और ड्यूटी के आगे भी एक दुनिया है जिसमे जीते जागते इंसान रहते हैं। अचानक यह एहसास बहुत तेज़ हो गया और फिर जैसे घने बादल छंट गये। उसका हाथ फोन की ओर बढ़ गया, "हेलो, सुपर ट्रेवल्स? एक टिकट लखनऊ का आज रात का , किसी भी क्लास में, फौरन भेज दीजिये। समय कम है, क्या आपका आदमी मुझे टिकट स्टेशन पर ही दे सकता है?"
और मीनाक्षी ने अपना अटैची पैक करनी शुरू कर दी।
"हाँ, मेम साब। कुली चाहिए?" लखनऊ स्टेशन पर कुली पूछ रहा था।
आखिरकार, मीनाक्षी लखनऊ पहुँच गयी , दिल्ली से लखनऊ की यात्रा पूरी हुई या उसके जीवन की नयी यात्रा शुरु हुई? यह सोचते हुए वह आगे बढ़ गई.
14 comments:
Oh Ranjana Ranjana - I think I have read a story written in Hindi after years and years - you have written such a beautiful compassionate and touching story. A story of lives wasted because the parents remained rooted in bye gone tradition and bigoted viewpoints - perhaps passing on their own sad experiences to their children just because they could not break tradition .. it is a compelling human story of those family values which were never to be meant to be there today - for change is the only law of nature and the social set up - what was good for children in ancient times an even a generation ago, may not be the right thing for them today - they are freer now than ever before and their wings can not be clipped. A beautiful well written story, Ranjana - 5 STARS!
Deepak
Interesting to know your Hindi story writing Pahali Yatra published in Sarita January 2014. Liked your venture in this area also. Remember one more blog published in Sarita or elsewhere ?
Beautiful story .... To Minakshi may be our generation can relate.
-- Rashmi Duggal
WOW!!!!
--Triloki Nagpal
Bahut sundar saarthak rachna hai!! Another feather in your cap,Ranjana! --- Chanchal Sanghi
khani phedne ka bad esa lagta he ki iske piche khankar ka dard chipa hen...Narender Gupta
We can relate to it... (Sanjiv Katyal)
I agree almost entirely with Menon except that even in the II gen. the attitude of the parents and problems faced by the young have not changed a bit.Same catharsis but the attitude of young has changed.They have more guts today as times have changed too.The defiance then took the form of a Career and independence (determination) to the extent that she does not even marry,but that is besides the point....Dinesh Kumar Jain
Really excellently penned..... great . Iam sure you had been writing earlier also & have kept that treasure locked, open it & share them to be followed in a book. Please keep it up....Anil Saxena
Superb!
(Deepak Chatterjee)
this is really a nice short story. keep it up (Mithilesh Kumar Sinha)
Great! Keep it up.
(Vijay Gupta)
Well 2 things........seeing your responses to a couple of Hindi poems on the Buddies circuit, it seemed that you had felicity with Hindi but this is way beyond that........that story has so much packed into it.....it does justice to the short story genre....Second if this story has elements of an autobiographical touch then to me it depicts that you are continuing to travel and discover yourself...........a sure Fountain of Youth you seem to drink from ...Shashi Sharma
Super
(Gulshan Dhingra)
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