सात वर्ष पहले की वह रात, जब मैं उस से पहली बार मिली थी, मुझे आज भी याद है. शनिवार का दिन था, रात के 10 बज चुके थे. सोने से पहले मैं कपड़े बदलने जा रही थी. तभी रात के सन्नाटे को चीरती हुई, बाहर की घंटी बजी. पतिदेव बिस्तर में लेट चुके थे. मेरी ओर प्रश्नसूचक दृष्टि से देख कर बोले, "इस वक़्त कौन हो सकता है?"
"क्या पता," कहते हुए मेरे मुख पर भी प्रश्नचिन्ह उभर आया.
कुछ दुखी, कुछ अनमने से होकर, वह बिस्तर से उठ कर अपना गाउन लपेट ही रहे थे कि घंटी दुबारा बज उठी. इस बार तो घंटी तीन बार बजी - डिंग-डाँग, डिंग-डाँग, डिंग-डाँग. आगंतुक कुछ ज्यादा ही जल्दी में लगता था.
"अरे, इस वक़्त कौन आ गया? यह भी भला किसी के घर जाने का वक़्त है क्या?" बड़बड़ाते हुए पति ने दरवाज़े की ओर तेज़ी से कदम बढाये.
दरवाज़ा खुलने की आवाज़ के साथ ही मुझे किसी महिला की आवाज़ सुनाई पड़ी. वह बहुत जल्दी-जल्दी कुछ कह रही थी, और ऐसा लग रहा था कि मेरे पति उस से कदाचित सहमत नहीं हो रहे थे. यह आवाज़ तो हमारे किसी परिचित की नहीं लगती, सोचते हुए मैंने कमरे के बाहर झाँका.
"हैलो!!! आप रंजना हैं ना? मैं दीप्ति, दीप्ति जोशी," कहते हुए वह मेरी ओर आ गयी और अपना दाहिना हाथ मेरी ओर बढ़ा दिया.
हाथ पकड़े -पकड़े ही वह लगातार बोलती चली गयी, "मैं आप की कॉलोनी में ही रहती हूँ. उधर 251 नंबर में. बहुत दिन से आप लोगों से मिलने की इच्छा थी, मौका ही नहीं मिल रहा था. आज मैंने सोचा बस अब और नहीं, आज तो मिलना ही है."
"आइये ना," कुछ बुझे से मन से मैंने बोला. मैं थकी हुई थी और उस समय अतिथि-सत्कार के मूड में तो बिलकुल नहीं थी.
"नहीं-नहीं, यहाँ नहीं. चलिए-चलिए, हम लोग कॉफ़ी पीने ताज में चल रहे हैं. "
"ताज में? इस वक़्त? कल चलें तो?"
"अरे नहीं. कल किसने देखा है? हम आज ही चलेंगे. बहुत मज़ा आएगा. कॉफ़ी शॉप तो खुली ही होगी."
इससे पहले कि मैं कुछ और कह पाती, दीप्ति जल्दी से दरवाज़े की ओर मुड़ गयी और जाते-जाते एक साँस में बोल गयी, "जल्दी से आप दोनों बाहर आ जाओ. कपडे-वपड़े बदलने की ज़रुरत नहीं हैं. किसी को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि आपने क्या पहना हुआ है. मेरी कार बाहर सड़क के बीच में खड़ी है. इससे पहले कि लोग हॉर्न मारने शुरू कर दें मैं चली. कार में आपका इंतज़ार कर रही हूँ. "
मैं और मेरे पति एक दूसरे को देखते रह गए और दीप्ति सटाक से घर के बाहर थी. अब हमारे पास और कोई चारा तो था नहीं, हम दोनों ने जल्दी से जीन्स और शर्ट पहने और दीप्ति की कार में पहुँच गए.
तो यह थी दीप्ति, जीवन से भरपूर, कोई दिखावेबाज़ी नहीं, जो दिल में, वही ज़बान पर. हालाँकि मैंने उसे कॉलोनी में आते-जाते कई बार देखा था परन्तु आमने-सामने आज मैं उससे पहली बार मिल रही थी. पर मुझे लग रहा था कि जैसे मैं उसे सदियों से जानती हूँ. लम्बी कद-काठी, छरहरा बदन, दोनों गालों में डिंपल जो मुस्कराते वक़्त और भी गहरे हो जाते थे. कंधे के नीचे तक झूलते उसके बाल जो उसके लम्बे चेहरे को मानो फ्रेम की भाँति सजा देते थे. इन सब के ऊपर उसकी बड़ी-बड़ी काली आँखें जो बिन बोले ही कितना कुछ बोल जाती थीं. पर आँखों को बोलने का मौका तो तब मिलता जब दीप्ति कभी बोलना बंद करती. कुल मिला कर कहें तो एक बेहद खुशमिज़ाज़ और ज़िंदा-दिल लड़की.
मुझे और दीप्ति को दोस्ती करने में बिलकुल समय न लगा. हम दोनों ही देहरादून के रहने वाले थे और दोनों ही पब्लिक सेक्टर बैंकों में नौकरी करते थे. पहले साधारण कैपुचिनो के बाद आयरिश कॉफ़ी और फिर कोल्ड कॉफी विद आइस क्रीम, गप्पें मारते-मारते कब रात के तीन बज गए, पता ही नहीं चला. बातों ही बातों में उसने बताया कि उसका एक बॉयफ्रेंड भी है दीपक, जो इस समय एम बी ए करने अमेरिका गया हुआ है, एक वर्ष बाद लौटेगा. हालाँकि उस के माता-पिता इस विवाह के पक्ष में नहीं हैं क्योंकि दीप्ति का रंग साँवला है, पर दीपक ने अपना मन पक्का कर लिया है कि वह शादी करेगा तो उसी से, नहीं तो किसी से नहीं.
उस रात जो हमारे बीच मित्रता का एक अटूट बंधन बन गया, दिन-प्रति-दिन प्रगाढ़ होता चला गया. लगता था जैसे पिछले जन्म का कोई नाता था. हम रोज़ शाम को इकट्ठे घूमते, इकट्ठे शॉपिंग करते और फिल्में देखने भी साथ जाते. कुछ ही महीनों में दीप्ति एक प्रकार से परिवार की तीसरी सदस्य ही बन गयी थी.
दीप्ति के व्यक्तित्व में दिखावेबाजी का नामो-निशान भी न था. दो टूक बातें और कोई लगाव-छिपाव नहीं. एक रविवार के दिन सुबह-सुबह बाहर की घंटी तीन बार बजी ... वही जल्दीबाज़ी जो अब तक दीप्ति की पहचान बन चुकी थी. दरवाज़ा खोला तो निश्चय ही दीप्ति थी. ना हाय न हैलो, न दुआ ना सलाम. बस सीधे वह मेरे किचन में थी. इस से पहले कि मैं कुछ समझ सकूं, उसने ड्राअर खोला और सारे चम्मच और काँटे उठा लिए, "मेरे घर में कुछ लोग लंच पर आ रहे हैं और मेरे पास चम्मच कम हैं. तुम लोग आज हाथ से खा लेना. चलो अच्छा दो चम्मच रख लो. बाकी सब शाम को लौटा दूँगीं."
भागते-भागते उसने पीछे मुड़ कर देखा, "अच्छा फिर शाम को मिलते हैं. मैं बचा हुआ खाना ले आऊंगी, इकट्ठे खाएंगे."
मैं मुस्करा दी. दीप्ति मुझ से कुछ साल छोटी थी और मुझे उस पर छोटी बहन जैसा ही प्यार आता था. शाम हुई और फिर रात हो गयी. मैंने डिनर में कुछ नहीं बनाया; दीप्ति का इंतज़ार कर रही थी. अपने वायदे के अनुसार वह मेरे चम्मच-काँटे लेकर वापस आ गयी और आते ही बोली, "कुछ खाना नहीं बचा. मेरे मेहमान सब खा गए. तेरे फ्रिज में कुछ पड़ा है क्या? निकाल ले. मैं तब तक खिचड़ी बनाती हूँ."
ऐसे ही महीने निकल गये. उसकी सोहबत में पता नहीं समय कहाँ उड़ जाता था. फिर एक दिन कुछ ऐसा हुआ जिसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की थी. मैं अपने गेट के बाहर खड़ी थी और दीप्ति दफ्तर से वापस आ रही थी. दूर से देखा तो मन में एक खटका सा हुआ. उसकी चाल कुछ ठीक नहीं लग रही थी. पास आयी तो मैंने पूछा, "कैसे चल रही है टेढ़ी-मेढ़ी? क्या हुआ? सब ठीक तो है न?"
वह फक से हँस पड़ी और उसके गालों के डिंपल और गहरे हो गए, "अरे कुछ नहीं रे, कुछ दिनों से सीधे नहीं चल पा रही हूँ. मेरा डॉक्टर कह रहा था कि कमज़ोरी होगी, कुछ विटामिन खा लो. पर मुझे लगता है कि कहीं तो कुछ गड़बड़ है. कल किसी स्पेशलिस्ट को दिखाने की सोच रही हूँ. चल अभी देर हो रही है, चलती हूँ." यह कह कर वह कुछ झूमती हुई, कुछ लड़खड़ाती हुई अपने फ्लैट की ओर चल पड़ी.
तीन दिन बाद उसका फ़ोन आया, " हे रंजना! अरे यार मैं हॉस्पिटल में पहुँच गयी हूँ. सब कुछ इतनी जल्दी में हुआ कि मैं तुझे बता भी नहीं पायी."
"क्या! हॉस्पिटल में? कौन से हॉस्पिटल में? क्या हुआ?"
"कुछ ज़्यादा नहीं. मेरे दिमाग में कोई कीड़ा है, यह तो मुझे हमेशा से ही पता था पर अब न्यूरोलॉजिस्ट को एक ट्यूमर भी मिल गया है. शायद कीड़े का घर होगा," कह कर वह ज़ोर से हंस पडी.
"साफ़-साफ़ बता. पहेलियाँ मत बुझा," मैंने फटकार लगाई.
“डॉक्टर ने कहा है तुरंत ऑपरेशन करना चाहिए. मैंने कहा ठीक है, जैसी आपकी आज्ञा! मम्मी को देहरादून से बुला लिया है. कल ऑपरेशन है. तू आएगी न मुझे हॉस्पिटल में मिलने?" मैं सकते में आ गयी और कुछ बोल भी न सकी.
इतने बड़े और सीरियस ऑपरेशन की पूर्व-संध्या को कोई इतना चिंतामुक्त कैसे हो सकता है?
मैं उसकी मम्मी से मिलने और दीप्ति का हाल जानने रोज़ अस्पताल जाती रही. पांच दिन बाद उसे आयी. सी. यू. से कमरे में लाया गया. उसके सिर के सारे बाल घुटा दिए गए थे और पूरे सिर पर सफ़ेद पट्टी बंधी हुयी थी. शक्ल से कुछ कमज़ोर लग रही थी पर उसकी मुस्कराहट ज्यों की त्यों थी. कितनी बहादुर लड़की है, मेरे दिल में उसके लिए इज़्ज़त और बढ़ गयी. पर मुझे लगा कि उसका चेहरा कुछ बदला-बदला सा लग रहा है. ऐसा लगा कि कहीं उसके चेहरे पर लकवा तो नहीं मार गया, पर पूछने की हिम्मत नहीं पड़ रही थी.
उसने मेरा दिमाग तुरंत पढ़ लिया, "क्या देख रही है? मेरा मुंह टेढ़ा लग रहा है ना? वो बद्तमीज़ ट्यूमर मेरे दिमाग की नर्व के चारों ओर लिपटा हुआ था. बेचारे सर्जन ने बहुत कोशिश की, पर हार के उसे वह नर्व काटनी ही पड़ गयी." कह कर वह हँस दी पर उस हँसी के पीछे छिपी मायूसी साफ़ दिख रही थी.
"डॉक्टर का कहना था भगवान् का शुक्र करो तुम्हारी जान बच गयी. शकल का क्या है? जो मुझे जानते हैं, मुझसे प्यार करते हैं वह सब तो खुश ही होंगे कि मैं ज़िंदा हूँ. जो मुझे जानते नहीं, वह कुछ भी सोचें, मुझे क्या फ़र्क़ पड़ता है? क्यों ठीक है ना?" फिर वही हज़ार वॉट बल्ब वाली मुस्कराहट!
जीवन की इतनी बड़ी मार उसने कैसे हँसते-हँसते झेल ली, देख कर मुझे बहुत आश्चर्य हुआ. हॉस्पिटल की घंटी बजने लगी, आगंतुकों के घर जाने का समय हो गया था. मैं भी घर लौट आयी पर रास्ते भर सोचती रही कि बेचारी दीप्ति के साथ भगवान् ने कितना अन्याय किया है.
दो दिन बाद जब मैं अस्पताल पहुँची तो देखा दीप्ति काला चश्मा लगा कर बिस्तर में लेटी हुयी है.
"अरे वाह! क्या स्टाइल है? अंदर कमरे में भी काला चश्मा?" मैंने बिना सोचे समझे ही बोल दिया. पर उसका उतरा हुआ चेहरा देख कर तुरंत ही मुझे अपनी गलती का एहसास हो गया. उसने मुझे गंभीरता से बताया कि लकवे की वजह से उसकी पलक झपक नहीं रही है और उसमे इन्फेक्शन का खतरा है. इसीलिये डॉक्टर ने उसकी आँख पर टाँके लगा दिए हैं. उसी को छिपाने के लिए उसे चश्मा लगाना पड़ रहा है. उसके ऑपरेशन के बाद उस दिन पहली बार लगा कि वह परेशान है.
मैंने उसे सांत्वना देने का प्रयास तो किया, "कोई बात नहीं, कुछ दिन की बात है. जल्दी ही सब ठीक हो जायेगा," पर मेरा अपना दिल उसकी यह दशा देख कर डूब रहा था.
अस्पताल से डिस्चार्ज होने के उपरान्त वह स्वास्थ्य लाभ के लिए अपने माता-पिता के साथ देहरादून चली गयी. लगभग दो महीने बाद वह वापस दिल्ली अपने घर आ गयी. वही पतली-दुबली और लम्बी आत्म-विश्वासी लड़की. उसके बाल भी कुछ बढ़ गए थे, हालाँकि थे छोटे ही. बस अब एक ही फर्क आ गया था. वह हर समय बड़ा सा काला चश्मा लगा कर रखती थी जिससे उसकी बंद बायीं आँख और विकृत चेहरा किसी को पूरी तरह दिखाई न दे.
एक शाम जब हम दोनों कोलोनी में वॉक कर रहे थे, उसने अपने दिल का दर्द मुझे बता ही दिया, "रंजना, क्या तुम्हें लगता है कि मेरी ऐसी सूरत देख कर भी दीपक मुझसे वैसे ही प्रेम करेगा जैसे वह पहले करता था? क्या तुम्हें लगता है कि वह अभी भी मुझसे शादी करना चाहेगा?"
मुझे समझ नहीं आया कि मुझे क्या कहना चाहिए. मैं तो दीपक को कभी मिली भी नहीं थी. पर हिम्मत कर के मैंने कहा, "अगर वह तुमसे सच्चा प्रेम करता है तो ज़रूर करेगा." मेरा दिल जानता था कि मैं उसे खुश करने के लिए ही ऐसा कह रही थी.
"पता है रंजना वह मुझे हज़ारों टेक्स्ट मैसेज भेज चुका है. और पता नहीं सैंकड़ों बार उसके फ़ोन आ चुके हैं पर मैं उसको कोई जवाब नहीं दे रही हूँ," मैंने देखा वह अपना दुपट्टा उंगली में लपेटे जा रही थी. स्पष्ट था वह काफी परेशान थी और किसी उलझन में पड़ी हुयी थी.
" हैं? ऐसा क्यों पागल? तूने उसे अपनी सर्जरी के बारे में बताया नहीं क्या? उसको तेरी कितनी फ़िक्र हो रही होगी? बेचारा क्या सोचता होगा?" मैंने उसे प्यार भरी फटकार लगाई.
"जानती हूँ, जानती हूँ. सर्जरी के टाइम उसके सेमेस्टर एग्जाम होने वाले थे, उसे टेंशन हो जाती तो पढ़ता कैसे? बाद में मैंने सोचा कि क्या बताऊँ. जिन आँखों में डूब जाने की बात वह हमेशा करता था, उनमें से एक तो हमेशा के लिए बंद हो गयी है. मैं नहीं सोचती कि उसे अब मुझ से शादी करनी चाहिए."
"पर उसने तुमसे शादी का वायदा किया है. तुम्हे उसे बताना तो चाहिए था. उसका इतना हक़ तो बनता है न?"
"मुझे पता है रंजना. पर मुझे रिजेक्शन से डर लगता है. अगर उसने मना कर दिया तो?"
"पर जानने का अधिकार तो उसे है न?" मैंने फिर वही बात दोहराई.
"पर मैं यह समझती हूँ कि वह एक बिना आँख की लड़की से क्यों शादी करेगा? उसे करनी भी नहीं चाहिए. सारी ज़िंदगी क्यों ख़राब करेगा बेचारा? मुझे कोई हक़ नहीं कि मैं उसकी ज़िंदगी खराब करूँ. अभी तो हमारी शादी हुयी नहीं है. उसे कोई और मिल जाएगी. और मैं उसकी ज़िंदगी से कहीं दूर चली जाऊँगी. "
उसका गला रुँध गया था और उसका घर भी आ गया था. बिना कुछ बोले वह घर की ओर मुड़ गयी. शाम के अँधेरे में भी उसकी आँखों से बहते आँसू मुझ से छिप न सके.
अगले दो-तीन सप्ताह मैं भी काम में कुछ ज्यादा ही मशगूल रही. बैंक में इंस्पेक्शन चल रहा था. फिर एक दिन अचानक वह मुझे दिखी, टैक्सी में कहीं जा रही थी. उसने टैक्सी रुकवाई और बैठे-बैठे ही बोली, "रंजना, मेरी ट्रांसफर हो गयी है. मैं दिल्ली से बाहर जा रही हूँ."
"क्या? अचानक? कहाँ जा रही है?"
"सब बताऊँगीं पर अभी नहीं. फ्लाइट छूट जाएगी. मैं वहां पहुँच कर तुम्हे फ़ोन करती हूँ. बाय-बाय !!" कहते-कहते उसने ड्राइवर को चलने का इशारा किया और टैक्सी चल पड़ी.
कुछ देर तो मैं वहाँ जड़वत खड़ी टैक्सी को जाते हुए देखती रही फिर घर की ओर मुड़ गयी. यह कैसा फेयरवेल था? सहेली से बिछड़ने का दुःख भी हुआ और गुस्सा भी बहुत आया. मैं वहाँ खड़ी न होती तो वह शायद मुझे बता कर भी न जाती. इसी को दोस्ती कहते हैं क्या?
मैंने उसके फ़ोन का हफ़्तों इंतज़ार किया. न कोई फ़ोन आया और ना ही कोई मैसेज. मुझे तो ये भी नहीं पता था कि वह गयी किस शहर में. सेलफोन पर फ़ोन किया तो एक ही जवाब, "आप जिस फ़ोन से संपर्क स्थापित करना चाह रहे हैं वो या तो स्विचड ऑफ है या कवरेज क्षेत्र से बाहर है."
और कुछ दिन बाद, "यह नंबर मौजूद नहीं है."
उसने अपना फ़ोन नंबर बदल लिया था और मुझे फ़ोन करने की ज़रुरत भी नहीं समझी थी. सेलफ़ोन तो बदला ही, उसने अपना फेसबुक अकाउंट भी डी-एक्टिवेट कर दिया था. उसको भेजी हुई ई-मेल भी वापस आ रही थी. मन उसकी परेशानी को लेकर पहले ही उदास था, अब मुझे उस पर क्रोध भी आ रहा था कि उसने मेरी दोस्ती का कैसा भद्दा मज़ाक उड़ाया था.
इस घटना को कई वर्ष बीत गए. ज़िंदगी अपनी डगर पर चलती गयी. नये रिश्ते बनते गए. नौकरी की बढ़ती हुयी ज़िम्मेदारियाँ और घर पर बढ़ती उम्र के दो बच्चों की देख-रेख, कुछ सोचने के लिए दो क्षण भी नहीं मिलते थे. दीप्ति द्वारा दिया गया घाव भी अब संभवतः भर चला था, हालांकि कभी-कभी अचानक उसकी बहुत याद आती. कहाँ होगी, कैसी होगी? कौन जाने?
फिर ऐसे ही एक दिन अचानक दफ्तर में निर्देश मिले. मुझे अहमदाबाद के एक प्रतिष्ठित संस्थान में तीन दिन के ट्रेनिंग प्रोग्राम के लिए जाना था. जाने का मन तो नहीं था, पर प्रोग्राम अच्छा था, सो मना नहीं किया और मैं अहमदाबाद पहुँच गयी. वहाँ अलग-अलग संस्थानों और बैंकों से अधिकारीगण आये हुए थे. पहले दिन ही जब सब प्रशिक्षणार्थी अपना-अपना परिचय दे रहे थे, मैं एक व्यक्ति का परिचय सुन कर सतर्क हो गयी. वह उसी बैंक का था जिसमे दीप्ति काम करती थी. मैंने तभी सोच लिया कि मौका लगते ही उससे दीप्ति के बारे में पूछूँगी. मौका हाथ तो लगा परन्तु आख़िरी दिन. हम लोग लंच के समय एक ही मेज़ पर थे और मैं पूछे बगैर न रह सकी, "क्या आप दीप्ति जोशी को जानते हैं? कई वर्ष पूर्व वह दिल्ली हेड ऑफिस में पोस्टेड थी. पता नहीं अभी कहाँ हैं?"
"हाँ, हाँ. बहुत अच्छी तरह से जानता हूँ उसे. दीप्ति मेरी बैच-मेट ही तो है. आजकल वह मुंबई मुख्य शाखा में पोस्टेड है. क्या आप जानती हैं उसे?"
"हाँ. कुछ वर्ष पहले मिली थी उसे. हमारी कॉलोनी में ही रहती थी," कहते हुए मैं कुछ हिचकिचा गयी. कैसे कहती कि वह तो मेरी इतनी अच्छी दोस्त थी.
"क्या वह अभी तक कुंवारी है या शादी कर ली?" मैंने कुछ झिझकते हुए पूछा.
" हाँ, हाँ. उसकी शादी तो लगभग छह-सात साल पहले, मुंबई आते ही हो गयी थी. उसका पति एक जाना-माना फाइनेंसियल ऐनलिस्ट है. क्या बन्दा है! बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ उसको अपने यहाँ रखने के लिए जाल डालती रहती हैं. सुना है उसने अमरीका से पढ़ाई की है. वहाँ भी सब उसे रखना चाहते थे पर वह इंडिया वापस लौट आया."
"वाह!! क्या बात है!" मैंने आश्चर्य जताया.
“हाँ! तो और क्या! अच्छा, आपको शायद पता नहीं होगा. उनकी प्रेम-कथा तो बहुत मज़ेदार है. उस बेचारी को ब्रेन ट्यूमर हो गया था और डॉक्टरों ने ऑपरेशन में कुछ तो लापरवाही दिखाई और उसके चेहरे पर लकवा मार गया. उस वक़्त दीपक मतलब उसका होने वाला पति अमरीका गया हुआ था. वह उसे वायदा करके गया था कि लौट कर उस से शादी करेगा. पर दीप्ति को लगा कि वह उससे इस हालत में शादी कदापि नहीं करेगा. उसने बस अपनी ट्रांसफर मुंबई करायी और चली आयी और साथ ही हम सब से वायदा लिया कि अगर वह उसे ढूँढता हुआ ऑफिस आता है तो हम उसे कुछ नहीं बताएँगे," वह मज़े ले-ले कर बोलता जा रहा था.
"अच्छा!! फिर क्या हुआ? " मैं कैसे बताती कि कहानी के यहाँ तक का भाग तो मैं भी जानती हूँ.
"वही हुआ जो दीप्ति ने सोचा था. यू.एस.ए. से लौट कर दीपक उसे ढूँढता हुआ हमारे ऑफिस आ पहुँचा, पर हमने अपने वायदे के अनुसार उसे कुछ नहीं बताया. पर इतने बड़े बैंक में, आप ही बताइये, किसी अफसर की पोस्टिंग भला छिप सकती है क्या? वह बैंक के मानव संसाधन विकास विभाग में गया, फिर कार्मिक विभाग में गया और उसने उसका पता मालूम कर ही लिया."
वह कहानी सुनाये जा रहा था और मेज़ पर बैठे सभी लोग बड़े ध्यान से दीप्ति की प्रेम-कथा सुन रहे थे.
"फिर क्या हुआ? दीपक मुंबई गया क्या?" मैं बेसब्री से कहानी ख़त्म होने का इंतज़ार कर रही थी.
"हाँ गया न! उसने पहली फ्लाइट पकड़ी और मुंबई चल पड़ा," कहानी अब क्लाइमेक्स की ओर तेज़ी से बढ़ रही थी परन्तु उसी समय प्रशिक्षण संस्थान के डायरेक्टर साहब हमारी मेज़ पर आ गये और सभी लोग उनसे बात करने के लिए उठ खड़े हुए. दीप्ति की प्रेम कथा अधूरी ही छूट गयी. लंच के बाद मेरा मन क्लास में बिलकुल न लगा. बार-बार दीप्ति का हँसता-मुस्कुराता चेहरा सामने आ जाता. उस से मिलने की इच्छा बहुत प्रबल हो रही थी. सोचा कि शाम को उसके बैच-मेट से उसका सैलफ़ोन नंबर तो ले ही लूंगीं पर क्लास ख़त्म होने से पहले ही वह निकल गया. शायद उसकी फ्लाइट जल्दी जाने वाली थी.
दिल्ली के लिए मेरी फ्लाइट अगले दिन सुबह थी. मैं रात भर दीप्ति के बारे में सोचती रही. क्या हुआ होगा, कैसे हुआ होगा? काश मैं उससे कभी मिल पाती.
सुबह-सुबह एयरपोर्ट जाते हुए भी मुझे बार-बार दीप्ति का ख्याल सता रहा था, कैसी होगी. पता नहीं ये टेलिपैथी थी अथवा महज़ इत्तेफ़ाक़, पर दीप्ति को अचानक सिक्योरिटी लाउन्ज में देख कर मैं दंग रह गयी. वही पतला-छरहरा बदन, वही कन्धों तक झूलते सीधे लम्बे बाल, वही कैजुअल सी फेडेड जीन्स और उसका फेवरिट लाल-काले चेक का शर्ट जिसकी बाहें उसने हमेशा की तरह कोहनी तक मोड़ रखी थीं. और तो और पैरों में भी वही कोल्हापुरी चप्पल. कुछ भी तो नहीं बदला था उसमें.
दीप्ति एक नटखट बच्चे के पीछे दौड़ रही थी और वह बच्चा मेरी ओर ही आ रहा था. मैंने आगे बढ़ कर बच्चे को पकड़ लिया तो दीप्ति ने भी मेरी ओर नज़र उठाई. एक हाथ से बच्चे को पकड़, दूसरा हाथ उसने मेरे गले में डाल दिया, “रंजना, ओ रंजना! कितने साल बाद मिल रहे हैं यार! कहाँ चली गयी थी तू?”
"मैं चली गयी थी? या तू कहीं जा के छिप गयी थी? कितने साल बीत गए और तेरा कुछ अता-पता ही नहीं है. कहाँ गायब हो गयी थी तू? कैसी है?"
सवालों की बौछार तले से निकलना उसे खूब आता था. तुरंत अपनी गलती मान ली,"सॉरी सॉरी माई डिअर फ्रेंड!! मैंने तुझे जान-बूझ कर नहीं बताया था. मुझे लगा कि वह मुझे ढून्ढता हुआ अगर कॉलोनी में आ गया तो तू कहीं उसे मेरा पता न बता दे. मुझे पता है तू नहीं चाहती थी कि मैं उस से दूर भाग जाऊँ."
“फिर दीपक ने तुझे कैसे ढून्ढ लिया? और दीपक को लेकर तेरे सारे डर? उनका क्या हुआ?" आधी कहानी तो मुझे पहले ही पता लग चुकी थी.
“अब मैं तुझे कैसे बताऊँ की वह कितना गुस्सा हुआ कि मैंने उसे अपने ऑपरेशन और बाद में लकवे के बारे में कुछ नहीं बताया था. तीन-चार महीने से कोई बात नहीं होने से वह बहुत परेशान हो गया था. इंडिया लौट कर उसने पहला काम किया कि मेरे पुराने घर गया. वहाँ मेरे बारे में कोई उसे कुछ नहीं बता पाया. अगले दिन वह मेरे दफ्तर गया और वहाँ से मेरा नया पोस्टिंग मालूम कर के सीधा मुंबई मेरे घर पहुँच गया. रात के साढ़े बारह बजे, घंटी की आवाज़ सुन कर पहले तो मैं डर गयी. झाँक कर देखा तो दीपक खड़ा था. दरवाज़ा खोलने के अलावा मेरे पास कोई और चारा नहीं था. पहले तो उसने इतना गुस्सा किया कि मैं उस से क्यों भाग रही थी? फिर मेरे ऑपरेशन के बारे में सारी बातें पूछीं? और जब मैंने उससे कहा कि उसे किसी और से शादी कर लेनी चाहिए तो वह गुस्से से आग बबूला हो गया."
“अच्छा!! क्या बोला?” मैं विस्मय पूर्वक उसे देख रही थी.
“वह कहने लगा, अच्छा अगर मुझे कुछ ऐसा हो जाता तो तुम मुझे छोड़ जातीं? और अगर शादी के बाद ऐसा कुछ हो जाता तो क्या तुम मुझे तलाक़ दे देतीं? पागल लड़की! तुम ऐसा सोच भी कैसे सकती हो कि मैं तुमसे शादी नहीं करूंगा?”
"हम सारी रात बहसते रहे और सुबह उसने कहा, मैं नाश्ता बनाता हूँ, तुम नहा-धोकर तैयार हो जाओ. हम आज ही कोर्ट में शादी करने जा रहे हैं. और ऐसे हमारी शादी हो गयी. "
दीप्ति के चेहरे पर वही हज़ार वॉट बल्ब वाली मुस्कराहट वापस आ गयी थी. मैंने अचानक नोटिस किया कि उसके चेहरे पर लकवे का तो नामो-निशाँ भी नहीं था, ना आँख सिली हुई थी और न ही वह सब छिपाने वाला बड़ा सा काला चश्मा था.
“और वो लकवा? आँख? काला चश्मा?" मुझे समझ नहीं आया कैसे और क्या पूछूं.
“अरे दुनिया में बड़े अजूबे होते हैं. ऐसा ही मेरे साथ हुआ. एक वर्ष बाद मेरे चेहरे का लकवा अपने आप ठीक हो गया. दीपक कहता है उसने मुझे हँसा-हँसा के कटी हुई नर्व को फिर से जोड़ दिया और डॉक्टर कहता है कभी-कभी ऐसा हो जाता है. कहते हैं ना कि सारी बीमारियों का इलाज बस प्यार ही तो है." कह कर दीप्ति बहुत ज़ोर से हँस पड़ी, वही पुरानी संक्रामक हँसी. उसके डिंपल फिर वैसे ही गहरा गये.
अचानक पब्लिक एड्रेस सिस्टम पर उसका नाम पुकारा जाने लगा, "अंतिम कॉल. श्रीमती दीप्ति जोशी, जो अहमदाबाद से मुंबई जा रही हैं, कृपया विमान की ओर तुरंत प्रस्थान करें."
"हे भगवान्!" उसने अपने बेटे का हाथ पकड़ा और तेज़ी से प्रस्थान की ओर भागने लगी.
कुछ कदम जाकर, उसने मुड़ कर देखा, हाथ हिलाया और वहीं से चिल्लाई,"मैं मुंबई जा कर तुझे मैसेज करूंगी. हम फिर मिलेंगें. तेरा फ़ोन नंबर बदला तो नहीं है ना?"
और एक बार फिर दीप्ति भीड़ में गायब हो गयी. मुझे खुशी थी कि उसकी ज़िंदगी का वह दु:खद अध्याय समाप्त हुआ और उसकी ज़िंदगी में एक बार फिर खुशी की लहर आ गयी थी.
वह सामने हवाई जहाज़ की सीढ़ियाँ चढ़ रही थी और मेरी आँखें खुशी से नम हो रहीं थीं. ज़िन्दगी की राह भी कितनी अजीब होती है? हम उसे अपने हिसाब से कितना भी मोड़ने की कोशिश करें, वह हमें अपने अनुसार ही चलाती है. नियति मनुष्य के वश में है या मनुष्य नियति के? पर मैं तो बस यही सोच रही हूँ कि क्या इस बार उसका फ़ोन आएगा?
*****
(सरिता 26 नवंबर 2020 अंक में प्रकाशित)
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