"उफ़्फ़!! अब यह किसका फ़ोन आ गया?" परेशान हो कर मैंने फ़ोन उठाया तो उधर से कमला आँटी की आवाज़ सुनायी पड़ी. कमला आँटी के साथ हमारे परिवार का बहुत पुराना रिश्ता है. उनके पति और मेरे पिता बचपन में स्कूल में साथ पढ़ते थे.
आँटी की आवाज़ से मेरा माथा ठनका. आँटी कुछ उदास सी लग रहीं थी और मैं जल्दी में थी. पर फिर भी आवाज़ को भरसक मुलायम बना कर मैंने कहा, " हाँ आँटी. बताइये कैसी हैं आप?"
"बेटा, मैं तो ठीक हूँ. पर तुम्हारे अंकल की तबियत काफ़ी ख़राब है. हम लोग पिछले दस दिन से अस्पताल में ही हैं," बोलते-बोलते उनका गला भर्रा गया तो मुझे भी चिंता हो गयी.
"क्या हुआ आँटी? कुछ सीरियस तो नहीं है?"
" सीरियस ही है बेटा. उनको एक हफ्ते पहले दिल का दौरा पड़ा था और अब.. .. अब लकवा मार गया है. कुछ बोल भी नहीं पा रहे हैं. डॉक्टर भी कुछ उम्मीद नहीं दिला रहे हैं," कहते हुआ उनका गला रुंध गया.
"हे भगवान्! आँटी आप फ़िक्र मत कीजिये. अंकल ठीक हो जाएंगे. आप हिम्मत रखिये. मैं शाम को आती हूँ आपसे मिलने," एक तरफ मैं उन्हें दिलासा दिला रही थी और दूसरी तरफ अपनी घड़ी देख रही थी. मीटिंग का समय होने वाला था और मेरे बॉस देर से आने वालों की तो बखिया ही उधेड़ देते थे. किसी तरह भागते-भागते मीटिंग में पहुँची पर मेरा दिमाग कमला आँटी और भाटिया अंकल की तरफ ही लगा रहा.
मीटिंग समाप्त होते-होते शाम हो गयी. मैंने सोचा घर जाते हुए अस्पताल की तरफ से निकल चलती हूँ. वहाँ जा कर देखा तो अंकल की हालत सचमुच काफी खराब थी. डॉक्टरों ने लगभग जवाब दे दिया था.
अस्पताल से निकलते हुए मैंने कहा, "आँटी किसी चीज़ की ज़रुरत हो तो बताइये."
कमला आँटी पहले तो कुछ हिचकिचाईं पर फिर बोलीं, "बेटा, दस दिन से अंकल अस्पताल में पड़े हैं. अब तुमसे क्या छिपाना? मेरे पास जितना पैसा घर में था, सब इलाज में खर्च हो गया है. इनके अकाउंट में तो पैसा है, परन्तु निकालें कैसे? यह तो चेक पर दस्तखत नहीं कर सकते और एटीएम कार्ड का पिन भी बस इन्हे ही पता है. इनका खाता तुम्हारे ही बैंक में है. यह रही इनकी पासबुक और चेक बुक. क्या तुम बैंक से पैसे निकालने में कुछ मदद कर सकती हो?" कहते हुए आँटी ने पास-बुक और चेक बुक मेरे हाथों में रख दी. आँटी को पता था कि मैं उसी बैंक में नौकरी करती हूँ.
"आँटी, आपका भी अंकल के साथ जॉइंट अकाउंट तो होगा ना? आप चेक साइन कर दीजिये, मैं कल बैंक खुलते ही आपके पास पैसे भिजवा दूंगी."
"नहीं बेटा नहीं. वही तो नहीं है. तुम्हे तो पता ही है मैं तो इनके कामों में कभी दखल नहीं देती रही. इन्होने भी कभी नहीं कहा और न ही मुझे कभी ज़रुरत महसूस हुई. बैंक का सारा काम तो अंकल खुद ही करते थे. पर पैसे तो इनके इलाज के लिए ही चाहिए. तुम तो बैंक में ही नौकरी करती हो. किसी तरह बैंक से निकलवा दोगी ना?" आँटी ने इतनी मासूमियत भरी उम्मीद से मेरी ओर देखा तो मुझे समझ न आया कि मैं क्या करूँ. बस चेक लेकर सोचती हुई घर आ गयी.
घर जाकर चैक फिर से देखा और बैंक की शाखा का नाम पढ़ा तो याद आया कि वहाँ का मैनेजर तो मुझे अच्छी तरह से जानता है. झटपट मैंने उसे फ़ोन किया और सारी स्थिति समझाई. उसने तुरंत मौके की नज़ाकत समझी और मुझे आश्वासन दिया, "कोई बात नहीं. मैं भाटिया साहब को अच्छी तरह से जानता हूँ. उनके सारे खाते हमारी ब्रांच में ही हैं. सुबह बैंक खुलते ही मैं खुद भाटिया साहब के पास अस्पताल चला जाऊंगा और उनके दस्तखत करवा के पैसे उनके पास भिजवा दूँगा. आप बिलकुल फिक्र मत कीजिये."
बैंक के निर्देशों के अनुसार यदि कोई खाताधारी किसी कारण से दस्तखत करने की हालत में नहीं होता है तो कोई अधिकारी अपने सामने उसका अंगूठा लगवा कर उसके खाते से पैसे निकालने के लिए अधिकृत कर सकता है. वह मैनेजर इन निर्देशों से भली-भाँति अवगत था, और भाटिया अंकल की मदद करने के लिए भी तैयार था, यह जान कर मुझे बहुत तसल्ली हुई और मैं चैन की नींद सो गयी.
सुबह दफ्तर जाने की जगह मैंने कार अस्पताल की और मोड़ ली. मुझे बहुत खुशी हुई जब नौ बजते न बजते बैंक का मैनेजर भी वहां पहुँच गया. उसके हाथ में विड्राल फॉर्म था, जामनी स्याही वाला इंक-पैड भी था. बेचारा पूरी तैयारी से आया था. आते ही उसने भाटिया अंकल से खूब गर्म-जोशी से नमस्ते की तो अंकल के चेहरे पर भी कुछ पहचान वाले भाव आते दिखे. फिर मैनेजर ने कहा, "भाटिया साहब, आपके अकाउंट से पच्चीस हज़ार रुपये निकाल कर आपकी मैडम को दे दूं?"
जवाब में जब अंकल ने अपना सिर नकारात्मक तरीके से हिलाया तो मैनेजर समेत हम सब सकते में आ गये.
उसने फिर कहा, "भाटिया साहब! आपके इलाज के लिए आपकी मैडम को पैसा चाहिए. आपके अकाउंट से निकाल कर दे दूँ?" जवाब फिर नकारात्मक था.
बेचारे मैनेजर ने तीन-चार बार प्रयास किया पर हर बार भाटिया अंकल ने सर हिला कर साफ़ मना कर दिया. उसने हार न मानी और फिर कहा, "भाटिया साहब, आपको पता है कि यह पैसा आपके इलाज के लिए ही चाहिये?"
भाटिया अंकल ने अब सकारात्मक सर हिलाया, परन्तु पैसे देने के नाम पर जवाब में फिर ना ही मिला.
हाँलाकि यह अकाउंट भाटिया अंकल के अपने अकेले के नाम में ही था, उन्होंने उस पर कोई नॉमिनेशन भी नहीं कर रखा था. बैंक मैनेजर ने आख़िरी कोशिश की, "भाटिया साहब, आपकी मैडम को इस अकाउंट में नौमिनी बना दूँ?" जवाब अब भी नकारात्मक था.
आपका अकाउंट कमला जी के साथ जॉइंट कर दूँ?" जवाब मैं फिर नहीं. ताज्जुब की बात तो यह कि भाटिया अंकल, जो कल तक न कुछ न बोल रहे थे और न ही समझ रहे थे, बैंक से पैसे निकालने के मामले में आज सर हिला कर साफ़ जवाब दे रहे थे.
मैनेजर ने मेरी ओर लाचारी से देखा और हम दोनों कमरे के बाहर आ गये. खाते से पैसे निकालने में उसने अपनी मजबूरी ज़ाहिर कर दी, "मैडम, अच्छा हुआ आप यहाँ आ गयी. नहीं तो शायद आप मेरा विश्वास भी नहीं करतीं. आपने खुद अपनी आँखों से देखा है. भाटिया साहब तो साफ़ मना कर रहे हैं. ऐसे में कोई भी उनके अकाउंट से पैसे निकालने की आज्ञा कैसे दे सकता है? मुझे खुशी है कि आप खुद यहाँ पर मौजूद हैं. नहीं तो शायद आप मेरी बात पर यकीन ही नहीं करतीं. "
उसकी बात तो सोलह आने खरी थी. अब मैनेजर तो बैंक वापस चला गया और मैं अंदर जाकर कमला आँटी को उसकी लाचारी समझाने की व्यर्थ कोशिश करने लगी. अस्पताल से आते हुए मैं उन्हें अपने पास से दस हज़ार रुपये दे आयी. साथ ही आश्वासन भी कि जितने रुपये चाहिए, आप मुझे बता दीजियेगा, आखिर अंकल का इलाज तो करवाना ही है."
शाम को बैंक से लौटते हुए मैं कमला आँटी के पास फिर गयी. वह अभी भी दुखी थीं. मैंने भी उनसे पूछ ही लिया, "आँटी, आपने कभी अंकल को अकाउंट जॉइंट करने के लिए नहीं कहा क्या?"
"कहा था, बेटा. कई बार कहा था, पर वह मेरी कब मानते हैं? हमेशा यही कहते हैं कि मैं क्या इतनी जल्दी मरने जा रहा हूँ? एक बार शायद यह भी कह रहे थे कि यह मेरा पेंशन अकाउंट है, जॉइंट नहीं हो सकता है. "
"नहीं नहीं आँटी, शायद उन्हें पता नहीं है. अभी तो पेंशन अकाउंट भी जॉइंट हो सकता है. चलो अंकल ठीक हो जाएंगे, तब उनका और आपका अकाउंट जॉइंट करवा देंगे और नॉमिनेशन भी करवा देंगे." यह कह कर मैं भी घर आ गयी.
रास्ते भर गाड़ी चलाते हुए मैं यही सोचती रही कि भाटिया अंकल वैसे तो आँटी का इतना ख्याल रखते हैं, पर इतनी महत्वपूर्ण बात पर कैसे ध्यान नहीं दिया?
कुछ दिन और निकल गए. भाटिया अंकल की तबियत और बिगड़ती गयी. आखिरकार, लगभग दस दिन बाद उन्होंने अंतिम सांस ले ली और कमला आँटी को रोता-बिलखता छोड़ परलोक सिधार गए. पति के जाने के अकथनीय दुःख के साथ-साथ आँटी के पास अस्पताल का बड़ा सा बिल भी आ गया. उनका अंतिम संस्कार होने तक आँटी के ऊपर ऋण काफी बढ़ गया था.
घर की सदस्य जैसी होने के नाते मैं लगभग रोज़ ही उनके पास जा रही थी और मैंने जो पहला काम किया वह यह कि भाटिया अंकल के सभी खाते बंद करवा के उन्हें कमला आँटी के नाम करवाया. इन कामों में बहुत से फॉर्म पूरे करने पड़ते हैं पर बैंक में नौकरी करने की वजह से मुझे उन सब का ज्ञान था. आँटी को सिर्फ इन्डेम्निटी बांड, एफिडेविट, हेयरशिप सर्टिफिकेट आदि पर अनगिनत दस्तखत ही करने पड़े थे जो मुझ में पूर्ण विश्वास होने के कारण वह करती चली गयीं और रिकॉर्ड टाइम में मैंने भाटिया अंकल के सभी खाते आँटी के नाम में करवा दिए. आँटी ने चैन की सांस ली और सारे ऋणों का भुगतान कर दिया. अपने खातों में उन्होंने नॉमिनी भी मनोनीत कर लिया. अंकल के शेयर्स, म्यूच्यूअल फंड्स आदि का भी यही हाल था. सबको ठीक करने में कुछ समय अवश्य लगा पर मुझे यह सब कार्य पूर्ण करके बहुत संतोष की प्राप्ति हुई.
भाटिया अंकल सरकारी नौकरी से रिटायर हुए थे. अब आँटी की फॅमिली पेंशन भी आनी शुरू हो गयी थी. और तो और, उन्होंने एटीएम से पैसे निकालना, चेक जमा करवाना और पासबुक में एंट्री करवाना भी सीख लिया था. सार यह कि उनका जीवन एक ढर्रे पर चल निकला था.
इस बात को कई महीने निकल गए पर एक बात मेरे दिल को बार-बार कचोटती रही. ऐसा क्या था कि अंकल ने अपने अकाउंट से पैसे नहीं निकालने दिये. फिर एक बार मौका निकाल कर मैंने आँटी से पूछ ही लिया. आँटी सकपका कर चुपचाप ज़मीन की ओर देखने लगीं. मुझे लगा कि शायद मुझे यह सवाल नहीं पूछना चाहिए था. पर कुछ क्षण पश्चात आँटी जैसे हिम्मत बटोर कर बोलीं, "बेटा, क्या बताऊँ? पैसा चीज़ ही ऐसी है. जब अपने ही सगे धोखा देते हैं, तब शायद आदमी के मन से सभी लोगों पर से विश्वास उठ जाता है. इनके साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ था,"
मैं चुपचाप आँटी की ओर देखती रही; मेरी उत्सुकता और जागृत हो गयी थी.
आँटी आगे बोलीं, "जब तुम्हारे अंकल मेडिकल की पढ़ाई कर रहे थे, उनके पिता यानी कि मेरे ससुर जी बहुत बीमार थे. पैसों की ज़रुरत पड़ती रहती थी. अतः उन्होंने अपनी चेक-बुक ब्लैंक साइन करके रख दी थी. मेरे जेठ के हाथ वो चेक बुक पड़ गयी और उन्होंने अकाउंट से सारे पैसे निकाल लिए. ना ससुर जी के इलाज के लिए पैसे बचे और न इनकी पढ़ाई के लिए. मेरी सास पैसे-पैसे के लिए मोहताज हो गयीं. फिर अपने जेवर बेच-बाच कर उन्होंने इनकी मेडिकल की पढ़ाई पूरी करवाई और साथ ही सीख भी दी कि पैसे के मामले में किसी पर भी विश्वास नहीं करना, अपनी बीवी पर भी नहीं. तुम्हारे अंकल ने शायद अपनी ज़िंदगी के उस कड़वे सत्य को आत्मसात कर लिया था और अपनी माँ की सीख को भी. इसीलिये वह अपने पैसे पर अपना पूरा नियंत्रण रखते थे और उस लकवे की हालत में भी उनके अंतर्मन में वही एहसास रहा होगा. “
अब सब कुछ शीशे की तरह साफ़ था परन्तु आँटी तनाव मैं लग रही थीं. मैंने बात बदली, "चलिए छोड़िये आँटी. मैं आपको चाय बना कर पिलाती हूँ."
समय बीतता गया, कमला आँटी की मनोस्थिति अब लगभग ठीक हो गयी थी और अपने काम संभालने से उनमें एक नये आत्म-विश्वास का संचार भी हो रहा था. वैसे तो कमला आँटी पढ़ी-लिखी थीं, हिंदी साहित्य में उन्होंने स्नातकोत्तर स्तर तक पढ़ाई की थी परन्तु पिछले चालीस सालों में केवल घर-बार में ही विलीन रहने से उनका जो आत्म विश्वास खो सा गया था, धीरे-धीरे वापस आने लगा था.
मैं जब भी उनसे मिलने जाती मुझे यही ख्याल बार-बार सताता था कि हरेक व्यक्ति भली-भांति जानता है कि उसे एक दिन इस दुनिया से जाना ही है. बुढ़ापे की तो छोडो, ज़िंदगी का तो कभी कोई भरोसा नहीं है. पर फिर भी अपनी मृत्यु के पश्चात अपने प्रिय-जनों की आर्थिक सुरक्षा बारे में कितने लोग सोचते हैं? छोटी -छोटी चीज़ें हैं जैसे कि अपना बैंक खाता जॉइंट करवाना, अपने सभी खातों, शेयर्स, म्यूच्यूअल फण्ड आदि में नॉमिनी का पंजीकरण करवाना आदि. साथ ही अपनी वसीयत करना भी तो कितना महत्त्वपूर्ण कार्य है. पर इन सब के बारे में ज्यादातर लोग सोचते ही नहीं हैं? अब कमला आँटी को ही लो. उन बिचारी को तो यह भी पता नहीं था कि वे फॅमिली पेंशन की हक़दार हैं, अंकल के पीपीओ आदि की जानकारी तो बहुत दूर की बातें हैं. लोग ज़िंदा रहते हुए अपने परिवार का कितना ख्याल रखते हैं परन्तु कभी यह नहीं सोचते कि मेरे मरने के बाद उनका क्या होगा?
धीरे-धीरे समय निकलता गया और कमला आँटी के जीवन में सब कुछ सामान्य सा हो गया. उनके घर मेरा आना-जाना भी कम हो गया. पर अचानक एक दिन आँटी का फ़ोन आया, "बेटा, शाम को दफ्तर से लौटते हुए कुछ देर के लिए घर आ सकती हो क्या?"
"हाँ हाँ. ज़रूर आँटी. कोई ख़ास बात है?"
"नहीं, कुछ ख़ास नहीं पर शाम को आना ज़रूर." आवाज़ से आँटी खुश लग रही थीं.
शाम पड़े जब मैं उनके घर पहुँची तो उन्होंने मेरे आगे लड्डू रख दिए. चेहरे पर बड़ी सी मुस्कान थी.
"लड्डू किस खुशी में आँटी?" मैंने कौतूहलवश पूछा, तो एक प्यारी सी मुस्कान उनके चेहरे पर फैल गयी.
"पहले लड्डू खाओ बेटा." बहुत दिन बाद कमला आँटी को इतना खुश देखा था. दिल को अच्छा लगा.
लड्डू बहुत स्वादिष्ट थे. एक के बाद मैंने दूसरा भी उठा लिया. तब तक आँटी अंदर के कमरे में गयी और लौट कर सरिता मैगज़ीन की एक प्रति मेरे हाथ में रख दी.
"यह देखो. तुम्हारी आँटी अब लेखिका बन गयी है. मेरी पहली कहानी इसमें छपी है."
" आपकी कहानी? वाह आँटी! बधाई हो."
"हाँ, कहानी क्या? आपबीती ही समझ लो. मैंने सोचा क्यों न सब लोगों को बताऊँ कि पैसे के मामले में पत्नी के साथ साझेदारी न करने से क्या होता है? और संयुक्त खाता न खोलने से उसको कितनी परेशानी हो सकती है. वैसे ही कोरोना-वायरस इतना फैला हुआ है, क्या पता किसका नंबर कब लग जाए. तुम्हारी मदद न मिलती तो मैं पता नहीं क्या करती. जैसा मेरे साथ हुआ, भगवान् न करे किसी के साथ हो."
कहते-कहते कमला आँटी की आँखे नम हो चली थी और साथ में मेरी भी.
मीटिंग समाप्त होते-होते शाम हो गयी. मैंने सोचा घर जाते हुए अस्पताल की तरफ से निकल चलती हूँ. वहाँ जा कर देखा तो अंकल की हालत सचमुच काफी खराब थी. डॉक्टरों ने लगभग जवाब दे दिया था.
अस्पताल से निकलते हुए मैंने कहा, "आँटी किसी चीज़ की ज़रुरत हो तो बताइये."
कमला आँटी पहले तो कुछ हिचकिचाईं पर फिर बोलीं, "बेटा, दस दिन से अंकल अस्पताल में पड़े हैं. अब तुमसे क्या छिपाना? मेरे पास जितना पैसा घर में था, सब इलाज में खर्च हो गया है. इनके अकाउंट में तो पैसा है, परन्तु निकालें कैसे? यह तो चेक पर दस्तखत नहीं कर सकते और एटीएम कार्ड का पिन भी बस इन्हे ही पता है. इनका खाता तुम्हारे ही बैंक में है. यह रही इनकी पासबुक और चेक बुक. क्या तुम बैंक से पैसे निकालने में कुछ मदद कर सकती हो?" कहते हुए आँटी ने पास-बुक और चेक बुक मेरे हाथों में रख दी. आँटी को पता था कि मैं उसी बैंक में नौकरी करती हूँ.
"आँटी, आपका भी अंकल के साथ जॉइंट अकाउंट तो होगा ना? आप चेक साइन कर दीजिये, मैं कल बैंक खुलते ही आपके पास पैसे भिजवा दूंगी."
"नहीं बेटा नहीं. वही तो नहीं है. तुम्हे तो पता ही है मैं तो इनके कामों में कभी दखल नहीं देती रही. इन्होने भी कभी नहीं कहा और न ही मुझे कभी ज़रुरत महसूस हुई. बैंक का सारा काम तो अंकल खुद ही करते थे. पर पैसे तो इनके इलाज के लिए ही चाहिए. तुम तो बैंक में ही नौकरी करती हो. किसी तरह बैंक से निकलवा दोगी ना?" आँटी ने इतनी मासूमियत भरी उम्मीद से मेरी ओर देखा तो मुझे समझ न आया कि मैं क्या करूँ. बस चेक लेकर सोचती हुई घर आ गयी.
घर जाकर चैक फिर से देखा और बैंक की शाखा का नाम पढ़ा तो याद आया कि वहाँ का मैनेजर तो मुझे अच्छी तरह से जानता है. झटपट मैंने उसे फ़ोन किया और सारी स्थिति समझाई. उसने तुरंत मौके की नज़ाकत समझी और मुझे आश्वासन दिया, "कोई बात नहीं. मैं भाटिया साहब को अच्छी तरह से जानता हूँ. उनके सारे खाते हमारी ब्रांच में ही हैं. सुबह बैंक खुलते ही मैं खुद भाटिया साहब के पास अस्पताल चला जाऊंगा और उनके दस्तखत करवा के पैसे उनके पास भिजवा दूँगा. आप बिलकुल फिक्र मत कीजिये."
बैंक के निर्देशों के अनुसार यदि कोई खाताधारी किसी कारण से दस्तखत करने की हालत में नहीं होता है तो कोई अधिकारी अपने सामने उसका अंगूठा लगवा कर उसके खाते से पैसे निकालने के लिए अधिकृत कर सकता है. वह मैनेजर इन निर्देशों से भली-भाँति अवगत था, और भाटिया अंकल की मदद करने के लिए भी तैयार था, यह जान कर मुझे बहुत तसल्ली हुई और मैं चैन की नींद सो गयी.
सुबह दफ्तर जाने की जगह मैंने कार अस्पताल की और मोड़ ली. मुझे बहुत खुशी हुई जब नौ बजते न बजते बैंक का मैनेजर भी वहां पहुँच गया. उसके हाथ में विड्राल फॉर्म था, जामनी स्याही वाला इंक-पैड भी था. बेचारा पूरी तैयारी से आया था. आते ही उसने भाटिया अंकल से खूब गर्म-जोशी से नमस्ते की तो अंकल के चेहरे पर भी कुछ पहचान वाले भाव आते दिखे. फिर मैनेजर ने कहा, "भाटिया साहब, आपके अकाउंट से पच्चीस हज़ार रुपये निकाल कर आपकी मैडम को दे दूं?"
जवाब में जब अंकल ने अपना सिर नकारात्मक तरीके से हिलाया तो मैनेजर समेत हम सब सकते में आ गये.
उसने फिर कहा, "भाटिया साहब! आपके इलाज के लिए आपकी मैडम को पैसा चाहिए. आपके अकाउंट से निकाल कर दे दूँ?" जवाब फिर नकारात्मक था.
बेचारे मैनेजर ने तीन-चार बार प्रयास किया पर हर बार भाटिया अंकल ने सर हिला कर साफ़ मना कर दिया. उसने हार न मानी और फिर कहा, "भाटिया साहब, आपको पता है कि यह पैसा आपके इलाज के लिए ही चाहिये?"
भाटिया अंकल ने अब सकारात्मक सर हिलाया, परन्तु पैसे देने के नाम पर जवाब में फिर ना ही मिला.
हाँलाकि यह अकाउंट भाटिया अंकल के अपने अकेले के नाम में ही था, उन्होंने उस पर कोई नॉमिनेशन भी नहीं कर रखा था. बैंक मैनेजर ने आख़िरी कोशिश की, "भाटिया साहब, आपकी मैडम को इस अकाउंट में नौमिनी बना दूँ?" जवाब अब भी नकारात्मक था.
आपका अकाउंट कमला जी के साथ जॉइंट कर दूँ?" जवाब मैं फिर नहीं. ताज्जुब की बात तो यह कि भाटिया अंकल, जो कल तक न कुछ न बोल रहे थे और न ही समझ रहे थे, बैंक से पैसे निकालने के मामले में आज सर हिला कर साफ़ जवाब दे रहे थे.
मैनेजर ने मेरी ओर लाचारी से देखा और हम दोनों कमरे के बाहर आ गये. खाते से पैसे निकालने में उसने अपनी मजबूरी ज़ाहिर कर दी, "मैडम, अच्छा हुआ आप यहाँ आ गयी. नहीं तो शायद आप मेरा विश्वास भी नहीं करतीं. आपने खुद अपनी आँखों से देखा है. भाटिया साहब तो साफ़ मना कर रहे हैं. ऐसे में कोई भी उनके अकाउंट से पैसे निकालने की आज्ञा कैसे दे सकता है? मुझे खुशी है कि आप खुद यहाँ पर मौजूद हैं. नहीं तो शायद आप मेरी बात पर यकीन ही नहीं करतीं. "
उसकी बात तो सोलह आने खरी थी. अब मैनेजर तो बैंक वापस चला गया और मैं अंदर जाकर कमला आँटी को उसकी लाचारी समझाने की व्यर्थ कोशिश करने लगी. अस्पताल से आते हुए मैं उन्हें अपने पास से दस हज़ार रुपये दे आयी. साथ ही आश्वासन भी कि जितने रुपये चाहिए, आप मुझे बता दीजियेगा, आखिर अंकल का इलाज तो करवाना ही है."
शाम को बैंक से लौटते हुए मैं कमला आँटी के पास फिर गयी. वह अभी भी दुखी थीं. मैंने भी उनसे पूछ ही लिया, "आँटी, आपने कभी अंकल को अकाउंट जॉइंट करने के लिए नहीं कहा क्या?"
"कहा था, बेटा. कई बार कहा था, पर वह मेरी कब मानते हैं? हमेशा यही कहते हैं कि मैं क्या इतनी जल्दी मरने जा रहा हूँ? एक बार शायद यह भी कह रहे थे कि यह मेरा पेंशन अकाउंट है, जॉइंट नहीं हो सकता है. "
"नहीं नहीं आँटी, शायद उन्हें पता नहीं है. अभी तो पेंशन अकाउंट भी जॉइंट हो सकता है. चलो अंकल ठीक हो जाएंगे, तब उनका और आपका अकाउंट जॉइंट करवा देंगे और नॉमिनेशन भी करवा देंगे." यह कह कर मैं भी घर आ गयी.
रास्ते भर गाड़ी चलाते हुए मैं यही सोचती रही कि भाटिया अंकल वैसे तो आँटी का इतना ख्याल रखते हैं, पर इतनी महत्वपूर्ण बात पर कैसे ध्यान नहीं दिया?
कुछ दिन और निकल गए. भाटिया अंकल की तबियत और बिगड़ती गयी. आखिरकार, लगभग दस दिन बाद उन्होंने अंतिम सांस ले ली और कमला आँटी को रोता-बिलखता छोड़ परलोक सिधार गए. पति के जाने के अकथनीय दुःख के साथ-साथ आँटी के पास अस्पताल का बड़ा सा बिल भी आ गया. उनका अंतिम संस्कार होने तक आँटी के ऊपर ऋण काफी बढ़ गया था.
घर की सदस्य जैसी होने के नाते मैं लगभग रोज़ ही उनके पास जा रही थी और मैंने जो पहला काम किया वह यह कि भाटिया अंकल के सभी खाते बंद करवा के उन्हें कमला आँटी के नाम करवाया. इन कामों में बहुत से फॉर्म पूरे करने पड़ते हैं पर बैंक में नौकरी करने की वजह से मुझे उन सब का ज्ञान था. आँटी को सिर्फ इन्डेम्निटी बांड, एफिडेविट, हेयरशिप सर्टिफिकेट आदि पर अनगिनत दस्तखत ही करने पड़े थे जो मुझ में पूर्ण विश्वास होने के कारण वह करती चली गयीं और रिकॉर्ड टाइम में मैंने भाटिया अंकल के सभी खाते आँटी के नाम में करवा दिए. आँटी ने चैन की सांस ली और सारे ऋणों का भुगतान कर दिया. अपने खातों में उन्होंने नॉमिनी भी मनोनीत कर लिया. अंकल के शेयर्स, म्यूच्यूअल फंड्स आदि का भी यही हाल था. सबको ठीक करने में कुछ समय अवश्य लगा पर मुझे यह सब कार्य पूर्ण करके बहुत संतोष की प्राप्ति हुई.
भाटिया अंकल सरकारी नौकरी से रिटायर हुए थे. अब आँटी की फॅमिली पेंशन भी आनी शुरू हो गयी थी. और तो और, उन्होंने एटीएम से पैसे निकालना, चेक जमा करवाना और पासबुक में एंट्री करवाना भी सीख लिया था. सार यह कि उनका जीवन एक ढर्रे पर चल निकला था.
इस बात को कई महीने निकल गए पर एक बात मेरे दिल को बार-बार कचोटती रही. ऐसा क्या था कि अंकल ने अपने अकाउंट से पैसे नहीं निकालने दिये. फिर एक बार मौका निकाल कर मैंने आँटी से पूछ ही लिया. आँटी सकपका कर चुपचाप ज़मीन की ओर देखने लगीं. मुझे लगा कि शायद मुझे यह सवाल नहीं पूछना चाहिए था. पर कुछ क्षण पश्चात आँटी जैसे हिम्मत बटोर कर बोलीं, "बेटा, क्या बताऊँ? पैसा चीज़ ही ऐसी है. जब अपने ही सगे धोखा देते हैं, तब शायद आदमी के मन से सभी लोगों पर से विश्वास उठ जाता है. इनके साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ था,"
मैं चुपचाप आँटी की ओर देखती रही; मेरी उत्सुकता और जागृत हो गयी थी.
आँटी आगे बोलीं, "जब तुम्हारे अंकल मेडिकल की पढ़ाई कर रहे थे, उनके पिता यानी कि मेरे ससुर जी बहुत बीमार थे. पैसों की ज़रुरत पड़ती रहती थी. अतः उन्होंने अपनी चेक-बुक ब्लैंक साइन करके रख दी थी. मेरे जेठ के हाथ वो चेक बुक पड़ गयी और उन्होंने अकाउंट से सारे पैसे निकाल लिए. ना ससुर जी के इलाज के लिए पैसे बचे और न इनकी पढ़ाई के लिए. मेरी सास पैसे-पैसे के लिए मोहताज हो गयीं. फिर अपने जेवर बेच-बाच कर उन्होंने इनकी मेडिकल की पढ़ाई पूरी करवाई और साथ ही सीख भी दी कि पैसे के मामले में किसी पर भी विश्वास नहीं करना, अपनी बीवी पर भी नहीं. तुम्हारे अंकल ने शायद अपनी ज़िंदगी के उस कड़वे सत्य को आत्मसात कर लिया था और अपनी माँ की सीख को भी. इसीलिये वह अपने पैसे पर अपना पूरा नियंत्रण रखते थे और उस लकवे की हालत में भी उनके अंतर्मन में वही एहसास रहा होगा. “
अब सब कुछ शीशे की तरह साफ़ था परन्तु आँटी तनाव मैं लग रही थीं. मैंने बात बदली, "चलिए छोड़िये आँटी. मैं आपको चाय बना कर पिलाती हूँ."
समय बीतता गया, कमला आँटी की मनोस्थिति अब लगभग ठीक हो गयी थी और अपने काम संभालने से उनमें एक नये आत्म-विश्वास का संचार भी हो रहा था. वैसे तो कमला आँटी पढ़ी-लिखी थीं, हिंदी साहित्य में उन्होंने स्नातकोत्तर स्तर तक पढ़ाई की थी परन्तु पिछले चालीस सालों में केवल घर-बार में ही विलीन रहने से उनका जो आत्म विश्वास खो सा गया था, धीरे-धीरे वापस आने लगा था.
मैं जब भी उनसे मिलने जाती मुझे यही ख्याल बार-बार सताता था कि हरेक व्यक्ति भली-भांति जानता है कि उसे एक दिन इस दुनिया से जाना ही है. बुढ़ापे की तो छोडो, ज़िंदगी का तो कभी कोई भरोसा नहीं है. पर फिर भी अपनी मृत्यु के पश्चात अपने प्रिय-जनों की आर्थिक सुरक्षा बारे में कितने लोग सोचते हैं? छोटी -छोटी चीज़ें हैं जैसे कि अपना बैंक खाता जॉइंट करवाना, अपने सभी खातों, शेयर्स, म्यूच्यूअल फण्ड आदि में नॉमिनी का पंजीकरण करवाना आदि. साथ ही अपनी वसीयत करना भी तो कितना महत्त्वपूर्ण कार्य है. पर इन सब के बारे में ज्यादातर लोग सोचते ही नहीं हैं? अब कमला आँटी को ही लो. उन बिचारी को तो यह भी पता नहीं था कि वे फॅमिली पेंशन की हक़दार हैं, अंकल के पीपीओ आदि की जानकारी तो बहुत दूर की बातें हैं. लोग ज़िंदा रहते हुए अपने परिवार का कितना ख्याल रखते हैं परन्तु कभी यह नहीं सोचते कि मेरे मरने के बाद उनका क्या होगा?
धीरे-धीरे समय निकलता गया और कमला आँटी के जीवन में सब कुछ सामान्य सा हो गया. उनके घर मेरा आना-जाना भी कम हो गया. पर अचानक एक दिन आँटी का फ़ोन आया, "बेटा, शाम को दफ्तर से लौटते हुए कुछ देर के लिए घर आ सकती हो क्या?"
"हाँ हाँ. ज़रूर आँटी. कोई ख़ास बात है?"
"नहीं, कुछ ख़ास नहीं पर शाम को आना ज़रूर." आवाज़ से आँटी खुश लग रही थीं.
शाम पड़े जब मैं उनके घर पहुँची तो उन्होंने मेरे आगे लड्डू रख दिए. चेहरे पर बड़ी सी मुस्कान थी.
"लड्डू किस खुशी में आँटी?" मैंने कौतूहलवश पूछा, तो एक प्यारी सी मुस्कान उनके चेहरे पर फैल गयी.
"पहले लड्डू खाओ बेटा." बहुत दिन बाद कमला आँटी को इतना खुश देखा था. दिल को अच्छा लगा.
लड्डू बहुत स्वादिष्ट थे. एक के बाद मैंने दूसरा भी उठा लिया. तब तक आँटी अंदर के कमरे में गयी और लौट कर सरिता मैगज़ीन की एक प्रति मेरे हाथ में रख दी.
"यह देखो. तुम्हारी आँटी अब लेखिका बन गयी है. मेरी पहली कहानी इसमें छपी है."
" आपकी कहानी? वाह आँटी! बधाई हो."
"हाँ, कहानी क्या? आपबीती ही समझ लो. मैंने सोचा क्यों न सब लोगों को बताऊँ कि पैसे के मामले में पत्नी के साथ साझेदारी न करने से क्या होता है? और संयुक्त खाता न खोलने से उसको कितनी परेशानी हो सकती है. वैसे ही कोरोना-वायरस इतना फैला हुआ है, क्या पता किसका नंबर कब लग जाए. तुम्हारी मदद न मिलती तो मैं पता नहीं क्या करती. जैसा मेरे साथ हुआ, भगवान् न करे किसी के साथ हो."
कहते-कहते कमला आँटी की आँखे नम हो चली थी और साथ में मेरी भी.
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