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Friday, 23 July 2021
LOSS OF TWO CHILDHOOD COMPANIONS
Wednesday, 21 July 2021
माँ की अपेक्षा (लघु कथा)
जून का महीना लगभग समाप्त होने वाला था. हॉस्टल तकरीबन खाली था. कहीं-कहीं कोई इक्का-दुक्का छात्र दिख जाता था. ऐसे में, हॉस्टल के कमरे में, चारपाई पर वह अकेला लेटा हुआ, छत की ओर देखे जा रहा था. उसके चेहरे पर तनाव की रेखाएं स्पष्ट दिखाई पड़ रहीं थीं. दो माह पहले, उसने एम. ए. (अर्थशास्त्र) की परीक्षा दी थी जिसका परिणाम कभी भी आ सकता था. उसे परिणाम की इतनी चिंता नहीं थी; उसे पता था कि पास तो वह हो ही जाएगा. उसे तो चिंता थी कि उसे कौन सा स्थान प्राप्त होगा. उसका ध्येय था कि उसे विश्वविद्यालय में प्रथम स्थान प्राप्त हो और साथ में मिले गोल्ड मैडल. गोल्ड मैडल के लिए उसे अपने अन्य सहपाठियों के साथ चल रही कड़ी स्पर्धा का भी पूरा-पूरा अनुमान था.
सबसे अधिक स्पर्धा तो उसे अपने ही कॉलेज के एक दूसरे सहपाठी विद्या
चरण से थी जो बहुत धनी परिवार से था और जिसके पास पढ़ाई के पूरे साधन मौजूद थे,
चाहे पुस्तकें हों या अकेला कमरा और घर में नौकर-चाकर की सुविधा. उसके
मुकाबले, उसके पास तो किताबें खरीदने के लिए भी पैसे नहीं थे. वह
तो किताबों के लिए, कॉलेज की एकमात्र लाइब्रेरी पर ही पूर्णतः
निर्भर था.
परीक्षा आरम्भ होने से लगभग दो माह पूर्व की बात थी जब सभी लेक्चरर तीव्र
गति से कोर्स पूरा कराने का प्रयास कर रहे थे और लगभग प्रति-दिन ही एक्स्ट्रा
क्लासेज भी हो रहीं थीं. कॉलेज के प्रिंसिपल बहुत अनुशासन-प्रिय थे और
अध्यापकों और छात्रों, सबके ऊपर उनकी पैनी नज़र रहती थी. कॉलेज के वातावरण में
सरगर्मी थी और वह भी पढ़ाई में पूरा ध्यान लगा रहा था.
उसकी तैयारियों को एकाएक बहुत बड़ा झटका लगा था, जब एक
दिन अचानक उसे बहुत तेज बुखार चढ़ गया था और सारी पढ़ाई रखी रह
गयी थी. डॉक्टर ने ब्लड टेस्ट करके बताया था कि टाइफाइड है; कम से कम
इक्कीस दिन लगेंगे बुखार उतरने में और ऐसे में वह क्लास में भी
नहीं जा सकता है. खाने-पीने का ध्यान रखना है, वो अलग.
ज्यों-त्यों कर के तीन हफ्ते निकल गए और बुखार भी उतर गया था पर कमज़ोरी
इतनी कि वह खड़ा भी नहीं रह पा रहा था. नहाने गया तो चक्कर खा कर गिर
पड़ा था. उसका रूम-मेट किसी तरह सहारा देकर उसे कमरे में लाया था.
उसके बाथ रूम में चक्कर खा कर गिरने की बात कॉलेज में तुरंत फैल
गयी थी. दोपहर का लेक्चर ख़तम होने के बाद उसका सबसे बड़ा
प्रतिद्वंदी उसके कमरे में आया और दरवाज़े से ही चिल्ला कर बोला, "अबे
भूल जा अब फर्स्ट आने का सपना. खड़ा तो हो नहीं सकता, फर्स्ट कैसे आएगा?
फर्स्ट तो मैं ही आऊंगा."
यह खुली चुनौती उसके मानस को स्वीकार नहीं हुई थी और उसने भी अपने दुर्बल
पर दृढ आवाज़ में उत्तर दे दिया था, "अरे, जा जा. कुछ भी कर ले, गोल्ड
मैडल तो मैं ही ले के रहूंगा."
इसके बाद तो उसने दिन-रात एक कर दिया था. पढ़ना, समझना, नोट्स बनाना और
उन्हें याद करना.. लगता था कि इसके अतिरिक्त उसके जीवन में और
कुछ शेष नहीं बचा था. जैसे अर्जुन को केवल चिड़िया की आँख दिखती थी, उसे
केवल गोल्ड मैडल दिख रहा था.
अब आज-कल में ही रिज़ल्टआने ही वाला था. उसकी मनोशक्ति जो
हमेशा उसके साथ थी, आज उसका साथ छोड़ती लग रही थी.
***
चारपाई पर लेटे -लेटे ही उसे अपनी माँ का ख्याल आया. गांव के कच्चे घर में
अभी क्या कर रही होगी भला? शायद मट्ठा बिलो रही होगी. वह तो कभी खाली
नहीं बैठती है. और वही तो उसके पीछे हमेशा चट्टान की तरह खड़ी रही है,
चाहे स्कूल हो या कॉलेज. चार साल पहले जब वह पढ़ाई करने यहां आना चाहता था तो
घर में सबने उसका विरोध किया था पर माँ? उसने साफ़ कह दिया था, "वह आगे पढ़ना
चाहता है तो उसे जाने दो. पैसे की फ़िक्र मत करो, जैसे भी होगा, मैं संभाल
लूंगी. मुझे बस एक बात पता है, मेरा यह सबसे छोटा बेटा एक दिन बहुत बड़ा अफसर
बनेगा. "
घर की पैसे की तंगी में इतना बड़ा फैसला लेना बड़ी बात थी पर माँ तो हमेशा
बड़े फैसले लेने को मानो तैयार रहती थी. गांव के मास्टरजी की एक भूल पकड़
लेने पर वह उसे गांव के प्राथमिक विद्यालय से कैसे निकाल लाई थी.
जिस मास्टर को इतना भी नहीं पता, वह बच्चों को क्या पढ़ायेगा, कह कर वह उसे शहर के
स्कूल में दाखिल करवा कर आ गयी थी. और वहां उसके साथ जो कुछ हुआ था, आज भी तस्वीर
की तरह आँखों के आगे घूम जाता है.
***
राजकीय माध्यमिक विद्यालय, सहारनपुर में उस दिन बहुत सरगर्मी थी.
नए सत्र का पहला दिन जो था. नए दाखिले हो चुके थे और बहुत सारे बच्चे
आज पहली बार स्कूल आ रहे थे. वह भी आज पहली बार इस स्कूल में आया था. आज
ही उसे यहाँ छठी कक्षा में दाखिला मिला था. शहर के इस स्कूल में
उसका भी पहला दिन था. वह कितना डरा हुआ था. सहमा सा,
सकुचाया सा, जब वह कक्षा में पहुंचा तो सब बच्चे शोर मचा रहे थे. जैसे ही
उसने क्लासरूम में कदम रखा, उसे देखते ही क्लास में बैठे सब छात्र एकदम चुप
हो गए और उसे देखने लगे थे. उनकी आँखों में कौतुहल था और उत्सुकता भी.
उसकी उम्र भी कम थी, मुश्किल से दस साल का होगा. ऊपर से उस की कद-काठी
भी छोटी थी. सांवला रंग और सिर पर मशीन से कटे हुए
छोटे-छोटे बाल, साथ ही सिर पर एक चोटी भी, जिसे उसने जतन से बाँध रखा
था. उसके कानों में चांदी की बालियां थी जिन्हे गांव के सुनार काका ने प्यार
से उसे पहना दीं थीं, "बेटा शहर में पढ़ने जा रहा है, मेरी बनाई मुरकियां तो
पहन जा."
उसके सूती कपडे वैसे तो साफ़-सुथरे थे पर पता चल रहा था के वह महंगे तो
कदाचित नहीं थे. उसके बालों के स्टाइल, पट्टू के पाजामे और कान
में पडी मुरकियों से साफ़ पता लग रहा था कि वह गांव के किसी गरीब
परिवार से आया है.
संभल-संभल कर कदम उठाता हुआ वह धीरे से क्लास में घुसा था और
सबसे पीछे रखे एक खाली डेस्क पर बैठ गया था. सारे छात्र उसे लगातार घूर
रहे थे. जैसे ही उसने अपना बैग वहां रखा, एक मोटा
सा गोरा लड़का उठा और उसकी तरफ इशारा करके ज़ोर
से बोला, "अरे भाई, किसी को पता है क्या कि यह कौन सा जानवर
है?"
दूसरे कोने से एक लड़के ने जवाब दिया, "चूहा है, चूहा."
पूरी क्लास ज़ोर से हंस पडी थी.
अब एक तीसरा बोला, "अरे नहीं रे, यह तो
पिद्दी चूहा है," और सारे बच्चे ज़ोर-ज़ोर से हंसने लगे थे. और वह? वह
असहाय और घबराया सा फर्श की ओर देखे जा रहा था.
अब एक और लड़का, जो शायद सब का नेता था ज़ोर से
बोला, "अरे ओ चूहे! सामने आ और सबको बता कि तू कौन से बिल से आया है?”
अब तो उसकी हालत और खराब हो गयी थी.
"अरे नहीं. कोई नाम पता बताने की ज़रुरत
नहीं है. यह तो एक डरा हुआ चूहा है, इसका हमारी क्लास में क्या काम है? चलो इसकी
पूंछ पकड़ कर इसे बाहर फ़ेंक देते हैं," किसी ने उसकी चोटी की ओर इशारा करते
हुए कहा और दो-तीन मोटे-तगड़े लड़के उसकी चोटी खींचने के इरादे से उसकी
ओर बढ़ने लगे. क्लास के बाकी सब बच्चे तमाशा देख रहे थे और हंस-हंस
कर मज़े ले रहे थे.
वह डर से कांप रहा था और उसके दिल की धड़कन तेज़ होती
जा रही थी. पर उसका भाग्य अच्छा था. जैसे ही उनके हाथ
उसकी चोटी पर पहुँचते कि क्लास-टीचर आते हुए दिख गए. उन्हें देखते
ही सब लड़के अपने-अपने डेस्क की ओर भाग गए थे और उसकी जान बच गयी थी.
क्लास टीचर ने सब की हाज़री लगाई और
पूछा, "आज नया लड़का कौन आया है क्लास में?"
कुछ देर पहले हुई घटना से वह अभी भी डरा
हुआ था. डरते-डरते उसने अपना हाथ उठाया था. मास्टर जी
ने अपने मोटे चश्मे को नाक के ऊपर चढ़ाया और उसकी ओर दो क्षण ध्यान से
देखा, मानों उसका परीक्षण कर रहे हों. फिर बोले, "गणित में पक्के
हो?"
उसे समझ में नहीं आया कि क्या उत्तर दे.
मास्टर जी ने एकाएक उस पर सवालों की बौछार कर दी थी, "खड़े हो
जाओ और जल्दी-जल्दी बताओ, सत्तानवे और तिरासी कितना हुआ?”
उसने एक क्षण सोचा और
बोला, "एक सौ अस्सी."
"सोलह सत्ते
कितना?"
"एक सौ
बारह," उसने तुरंत जवाब दिया.
"तेरह का पहाड़ा
बोलो," टीचर ने आगे कहा.
"तेरह एकम तेरह,
तरह दूनी छब्बीस, तेरह तिया उन्तालीस .. .. .. तेरह नम एक सौ सत्रह, तेरह
धाम एक सौ तीस," वह एक ही सांस में तेरह का पहाड़ा पढ़ गया.
"उन्नीस
का पहाड़ा आता है?"
"जी आता है.
सुनाऊँ क्या?" उसका आत्म-विश्वास अब बढ़ रहा था.
"नहीं रहनो
दो," टीचर जी की आवाज़ अब कुछ नरम हो गयी थी.
"तुम्हे पहाड़े
किसने सिखाये?"
"माँ ने घर पर
ही सिखाये हैं," उसने दबे स्वर में उत्तर दिया था.
"माँ नें? माँ
कितनी पढ़ी हुयी है?" उनकी आवाज़ में अविश्वास था.
"नहीं गुरूजी.
माँ पढ़ी-लिखी नहीं हैं. उन्होंने तो मुझे सिखाने के लिए मेरे बड़े भाई
से पहाड़े सीखे थे. "
"हम्म्म्म. बैठ
जाओ," अध्यापक की आवाज़ में उसे कुछ प्रशंसा की अनुभूति हुई थी
और वह बैठ गया. लगा तनाव अब कुछ कम हो गया था.
मास्टरजी क्लास टीचर
होने के अतिरिक्त बच्चों को गणित भी पढ़ाते थे. वह बहुत लायक अध्यापक
थे, बहुत मेहनत से छात्रों को पढ़ाते थे और उनसे ऊंची अपेक्षा भी रखते थे.
अपेक्षाएं पूर्ण न होने पर उनका पारा चढ़ जाता था और गुस्सा उतरता था बच्चों
की हथेलियों पर, उनकी छड़ी की लगातार मार से. और इस छड़ी की मार से सभी बच्चे बहुत
डरते थे. उनका मकसद तो बस इतना था कि उनका कोई छात्र गणित में कमज़ोर न रह जाए.
ऐसे
ही धीरे-धीरे एक महीना निकल गया. उन तीन शैतानों की
तिगड़ी उसे परेशान करने का और मज़ाक़ बनाने का कोई मौक़ा नहीं छोड़ती थी.
कभी उसके बालों का मज़ाक तो कभी उसके कपड़ों का. असहाय सा होकर वह सब
अन्याय सहता था; इसके अलावा उसके पास और कोई चारा भी तो नहीं था. वह
तीन थे, शारीरिक रूप से बलशाली थे और शहर के प्रभावशाली परिवारों से थे.
वह तीनों तो स्कूल भी रोज़ कार से आते थे और
उनका ड्राइवर उनका बस्ता और खाने का डिब्बा क्लास तक छोड़ कर
जाता था. इन बातों को सभी बच्चे देखते थे और कुछ शिक्षक भी उन्हें हतप्रभ होकर
देखा करते थे. उनकी तुलना में, वह तो एक दरिद्र परिवार से था जिसे स्कूल की फीस
देना भी कठिन लगता था, अपनी साइकिल चला कर दस किलोमीटर दूर से आता था. खाने
के डिब्बे में तो बस दो नमकीन रोटी और अचार होता था.
यूँ ही दिन निकलते गए
और तिमाही परीक्षा का समय आ गया था. तिमाही परीक्षा के नम्बर बहुत
महत्वपूर्ण थे क्योंकि उसके २५% नम्बर वार्षिक परीक्षा फल में जुड़ते थे.
इसीलिये सभी छात्रों से यह अपेक्षा होती थी कि वे इन परीक्षाओं को गम्भीरतापूर्वक
लें.
परीक्षा के लगभग एक
सप्ताह बाद जब मास्टरजी हाथ में पैंतीस कापियां लिए
घुसे, वातावरण में सन्नाटा सा छा गया था. मास्टरजी ने कापियां धम्म से
मेज़ पर पटकीं, अपनी छड़ी ब्लैक बोर्ड पर टिकाई और हुंकार भरी, "मुरकी
वाले!"
"जी
मास्टरजी," वह डर के मारे स्प्रिंग लगे बबुए की तरह उछल कर खड़ा हो गया
था.
"यह तुम्हारी
कॉपी है?"
"जी मास्टर जी,"
उसकी ज़बान डर से लड़खड़ा गयी थी.
"इधर आओ, "
मास्टरजी की रोबदार आवाज़ कमरे में गूंजी तो उसके हाथ-पाँव ठन्डे होने लगे और वह
धीरे-धीरे मास्टरजी की मेज़ की तरफ बढ़ा.
"अरे
जल्दी चल. माँ ने खाना नहीं दिया क्या आज?"
वह तेज़ी से भाग कर
मास्टर जी की मेज़ के पास पहुँच गया. मन ही मन वह स्वयं को मास्टरजी की बेंत खाने के लिए भी तैयार कर रहा था.
मास्टरजी ने उसे
दोनों कंधों से पकड़ा और क्लास की तरफ घुमा दिया. उसके कन्धों पर हाथ
रखे-रखे मास्टर जी बोले, "यह लड़का छोटा सा लगता है. रोज़ साइकिल
चला कर गांव से आता है पर पूरी क्लास में बस एक यही है जिसके सौ में से सौ
नम्बर आये हैं. शाबाश, मेरे बच्चे, तुमने मेरा दिल खुश कर दिया," कहते हुए
मास्टरजी ने उसकी पीठ थपथपाई तो उसे चैन की सांस आयी थी.
अब मास्टर जी ने
आख़िरी बेंच की ओर घूर कर देखा और आवाज़ लगाई, "ओये मोटे, ओ मंद बुद्धि, अरे
ओ अकल के दुश्मन! तीनों इधर आगे आओ. तुम तीनो तो मेरी क्लास के लिए
काले धब्बे हो. तीनों को अंडा मिला है."
अब जो हुआ, वह तो
उसने कभी सपने में भी नहीं सोचा था. मास्टरजी ने उसे अपनी छड़ी पकड़ाई और कहा,
"तीनो के हाथों पर दस-दस बार मारो. तभी इनको अकल आएगी.
"
वह अकबका कर खड़ा रह गया. उसे समझ ही नहीं आ रहा था कि क्या करे.
एक लड़के ने फुसफ़ुसा कर कहा, "धीरे से...नहीं तो .."
उसने धीरे से उसकी
हथेली पर छड़ी मारी तो मास्टर जी की ऊंची आवाज़ कान में पडी, "ज़ोर से
मारो, नहीं तो डबल छड़ियाँ तुम्हारे हाथों पर पड़ेंगीं."
यह सुन कर तो उसकी हवा
सरक गयी और अगले पांच मिनट तक छड़ियों की आवाज़ कमरे में गूंजती रही.
सटाक ... सटाक ... सटाक!!!
और इस तरह से छोटे से
गांव का वह छोटा सा लड़का अपनी क्लास का बेताज का बादशाह बन
गया था. आने वाले चार सालों में उसका सिक्का चलता रहा था. उसे समझ आ गया था
कि पढ़ाई में सबसे ऊपर रह कर ही वह अपने आत्म-सम्मान की रक्षा कर सकता था.
***
अचानक हॉस्टल की बिजली चली गयी और गर्मी का एहसास उसे अतीत से
वर्तमान में खींच लाया. उठ कर वह कमरे के बाहर आ गया और बरामदे की दीवार
पर बैठ गया. जून का महीना था, सुबह के ग्यारह बज चुके थे और हवा
गरम थी. पूरा हॉस्टल खाली पड़ा था; तकरीबन सभी छात्र गर्मियों की छुट्टी में
घर चले गए थे पर वह वहीं रुक गया था. घर जाकर क्या करता; यहाँ रह कर पुस्तकालय से
किताबें लेकर वह आने वाली प्रतियोगात्मक परीक्षाओं की तैयारी कर सकता था. आज
सोमवार था और लाइब्रेरी बंद थी. अतः वह कमरे में ही बैठा था.
बरामदे की दीवार पर बैठा वह नीले आकाश की ओर देख रहा था जहाँ कुछ पक्षी ऊंची उड़ान भर रहे थे. क्या वह भी कभी ऐसी
उड़ान भर पायेगा? सोचते-सोचते ध्यान फिर से अतीत की गलियों में भटक गया.
***
चार साल पहले, देहरादून में माता वाले बाग़ के पास वह एक छोटा सा
कमरा जहाँ वह और उसके बड़े भाई रहते थे. रात का समय था.
कमरे में बान की दो चारपाइयाँ पड़ीं थीं. उनके बीच एक लकड़ी का फट्टा
रखा था और उस फट्टे पर मिट्टी के तेल वाली एक लालटेन रखी थी जिस से
दोनों को रोशनी मिल रही थी. वह इंटरमीडिएट परीक्षा की तैयारी कर रहा था
और बड़े भैया एम. ए. की. दोनों भाई अपनी-अपनी चारपाई पर पालथी मार कर बैठे
हुए थे, किताब गोद में थी और परीक्षा की तैयारी चल रही थी. कमरे में सन्नाटा
था, बस कभी-कभी पन्ना पलटने की आवाज़ आती थी.
लालटेन की लौ अचानक भभकने लगी.
"चलो अब सो जाते हैं. लगता है लालटेन में तेल ख़तम हो रहा
है," बड़े भैया ने चुप्पी तोड़ी थी.
"पर मेरी पढ़ाई तो पूरी नहीं हुई है," उसने दबा हुआ सा विरोध किया
था.
"समझा करो न. घर में और तेल नहीं है. अगर कल ट्यूशन के पैसे मिल
गए तो मैं तेल ले आऊंगा. अब किताबें रख दो और सो जाओ. मैं
भी सो रहा हूँ. और कोई तरीका नहीं है," कहते हुए बड़े भैय्या ने किताबें
ज़मीन पर रखी और करवट बदल कर लेट गए.
लालटेन की लौ एक बार ज़ोर से भड़की और लालटेन बुझ गयी. कोठरी में पूरी
तरह अंधकार छा गया था.
उसने अँधेरे में ही किताबें उठायीं और दबे पाँव कमरे के बाहर
निकल गया था.
बाहर सड़क किनारे, बिजली के खम्बे के नीचे पड़े, पेड़ के एक तने पर ही
बैठ कर उसकी बाकी की पढ़ाई शुरू हो गयी थी और तब तक चलती रही जब तक अगले दिन की परीक्षा की
तैयारी पूरी नहीं हो गयी.
कुछ दिन बाद जब इंटरमीडिएट परीक्षा का नतीजा निकला तो उसे खुद भी विश्वास
नहीं हुआ कि उसने पूरे उत्तर प्रदेश राज्य में प्रथम स्थान प्राप्त किया था.
रिजल्ट देख कर बड़े भैया भी खुश हुए और बोले, "तुम्हारे नंबर अच्छे
आयें हैं, अब तुम्हे कहीं न कहीं क्लर्क की नौकरी तो मिल ही जाएगी. चलो मैं कल
ही कहीं बात करता हूँ."
उसने तुरंत कहा
था,"नहीं, नहीं मुझे नौकरी नहीं करनी है: मुझे आगे पढ़ाई करनी है और माँ के
सपने को साकार करना है. वह चाहती है कि मैं खूब पढ़ाई करके एक बड़ा अफसर बनूँ."
बड़े भैय्या ने कुछ अनमने से होकर कहा था,"अब मैं तुम्हारा
खर्चा और नहीं उठा सकता हूँ. समय आ गया है कि अब तुम
खुद कुछ कमाना शुरू करो."
सुनकर उसे अच्छा नहीं लगा था पर इतने अच्छे नंबर और बोर्ड में पहला स्थान
आने से उसका आत्मविश्वास बढ़ गया था, "पर भैय्या, मैंने बोर्ड में टॉप
किया है. मुझे लगता है कोई न कोई कॉलेज तो मेरी फीस माफ़ कर ही देगा. आप
मुझे बस पचास रुपये दे दीजिये."
"अच्छा ठीक है. जब मुझे ट्यूशन के पैसे मिलेंगे, मैं तुम्हे दे
दूंगा," भाई की ये बात सुनकर उसका दिल बल्लियों उछलने लगा था.
अगले महीने की पहली तारीख को बड़े भैय्या ने उसके हाथ में पचास रुपये रख दिए
और उसने उसी रात कानपुर की ट्रेन पकड़ ली थी. उसने कानपुर के
डी.ए वी. कॉलेज के प्रधानाचार्य श्री कालका प्रसाद भटनागर के विषय में
बहुत सकारात्मक बातें सुनीं थीं. बस अपनी किस्मत आजमाने वह कानपुर चला
आया था. गर्मी की छुट्टियां चालू हो गयीं थीं पर प्रिंसिपल साहब अपने दफ्तर में
विराजमान थे. उसकी हाई स्कूल और इंटरमीडिएट की मार्क-शीट
देखी तो बोले, "तुम्हे कहीं जाने की ज़रुरत नहीं है.
तुम्हारा एडमिशन बस यहां हो गया है. तुम्हारी फीस माफ़ और हॉस्टल का खर्चा भी.
हमारे कॉलेज को तुम्हारे जैसे बच्चों की ज़रुरत है. मुझे पूरा विश्वास है कि
तुम हमारे कॉलेज का नाम रोशन करोगे."
प्रिंसिपल साहब के कमरे से निकला तो उसका दिल प्रसन्नता से फूला न समा रहा था. अपना टीन का बक्सा उठाये वह हॉस्टल
पहुँच गया और अपने पिछले चार साल उसने इसी कमरे में बिताये थे. बी.ए, की
परीक्षा में फर्स्ट डिवीज़न आयी तो उसकी एम.ए. की फीस भी माफ़ हो गयी थी. और
आज एम. ए. का रिजल्ट भी आने वाला था.
***
"अरे ओ भैय्या. हियाँ बईठ के का दिन में ही सपनवा देख रहे
हो? चलो चलो, जल्दी चलो. प्रिंसिपल साहब अपने दफ्तर में बुलाएं हैं
तुमका," दफ्तर का चपरासी उसे बुलाने आया था.
वह तत्काल उठा और भाग कर कमरे में जाकर कमीज पहन कर आ गया. उसका दिल
तेज़ी से धड़क रहा था. प्रिंसिपल साहब ने उसे क्यों बुलाया है?
शायद रिजल्ट आ गया होगा. अगर रिजल्ट अच्छा न हुआ तो? अगर फर्स्ट डिवीज़न
ना आयी तो क्या होगा? क्या उसे हॉस्टल खाली करना पड़ेगा? परीक्षा देते
हुए उसकी तबियत इतनी खराब थी."
दफ्तर के पास पहुंच कर उसने देखा कि उसका सबसे बड़ा प्रतिद्वंदी विद्या चरण
भी वहां पहुंचा हुआ था. उसे भी दफ्तर में बुलाया गया था. दोनों की आँखें
मिलीं तो लगा कि वह एक दूसरे को नापने की कोशिश कर रहे थे. चपरासी ने दोनों को
अंदर आने का इशारा किया.
प्रिंसिपल साहब बहुत गंभीर स्वभाव के व्यक्ति थे. उन्होंने अपना
चश्मा एडजस्ट किया और दोनों को देखा. उनके स्वभाव के प्रतिकूल आज उनके चेहरे
पर मंद मुस्कराहट थी, "तुम लोगों का रिजल्ट आ गया है.
तुमने हमारे कॉलेज का सिर गर्व से ऊंचा कर दिया है. मैंने सोचा कि तुम्हे खुद
ही बता दूँ.”
ऐसा कहते हुए वह अपनी मेज़ से उठ कर आगे आए और विद्या चरण से हाथ मिलाते हुए
बोले, "मुबारक़ हो, विद्या! तुमने कॉलेज में टॉप किया है."
विद्या चरण का चेहरा खुशी से चमक उठा और वह तुरंत प्रिंसिपल साहब
के पैर छूने को झुक गया. साथ ही वह तिरछी नज़र से उसे भी देख रहा था
मानो कह रहा हो, "ले बेटा, बड़ा चौड़ा हो रहा था कि फर्स्ट तो मैं ही आऊंगा.
पता लग गयी अपनी औकात."
उसका फर्स्ट आने का सपना चकनाचूर हो गया था पर आँखें झुकाये वह वहां
खड़ा रहा था: किसी तरह आँसूँ छिपाने की कोशिश कर रहा था. उसका प्रतिद्वंदी आखिरकार
उस से जीत गया था.
वह वहां खड़ा हुआ अपने पैर के अंगूठे को देखे जा रहा था और उसने
ध्यान भी नहीं दिया कि कब प्रिंसिपल साहब उसके पास आकर खड़े
हो गए और उसे अपने गले लगा लिया.
"और तुम तो मेरे चमत्कारी बच्चे हो. तुमने हम सब की छाती चौड़ी कर दी
है. तुमने यूनिवर्सिटी में टॉप किया है. पहली बार हमारे कॉलेज से
किसी ने यूनिवर्सिटी में टॉप किया है. जल्दी ही अपना गोल्ड मैडल लेने के लिए
तैयार हो जाओ."
यह सुन कर वह सकते में आ गया. उसे अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था. आँखों
में आये दुःख के आँसूं अब खुशी के आंसुओं में बदल गए थे.
प्रिंसिपल साहब ने बात आगे बढ़ायी, "हमारे कॉलेज में एक लेक्चरर
की जगह खाली है. मैं चाहता हूँ कि तुम यहां ज्वाइन कर लो.
मुझे पता है तुम प्रशासनिक सेवाओं में जाना चाहते हो पर तुम्हारी उम्र
अभी कम है. अगले साल तक यहीं पढ़ाओ और अपनी तैयारी भी करो. कॉलेज का
भी फायदा और तुम्हारा भी. क्या ख्याल है?"
"जैसी आपकी आज्ञा, सर," कहते हुए उसने हाथ जोड़ कर सर झुका
दिया और उसके हाथ स्वतः ही प्रिंसिपल साहब के पैरों की ओर बढ़ गए.
प्रिंसिपल साहब के दफ्तर से जब वह बाहर निकला, उसकी दुनिया पूरी तरह बदल चुकी थी. कड़ी मेहनत, दृढ निश्चय और कुछ कर दिखाने की इच्छा और उन सब के पीछे थी उसकी माँ की अपेक्षाएं जिन की शक्ति ने आज उसे एक सफल जीवन की चौखट पर ला कर खड़ा कर दिया था.
(दिल्ली
प्रेस की पत्रिका सलिल सरस २०२१ में प्रकाशित)
Wednesday, 20 January 2021
संयुक्त खाता (लघु कथा)
"उफ़्फ़!! अब यह किसका फ़ोन आ गया?" परेशान हो कर मैंने फ़ोन उठाया तो उधर से कमला आँटी की आवाज़ सुनायी पड़ी. कमला आँटी के साथ हमारे परिवार का बहुत पुराना रिश्ता है. उनके पति और मेरे पिता बचपन में स्कूल में साथ पढ़ते थे.
आँटी की आवाज़ से मेरा माथा ठनका. आँटी कुछ उदास सी लग रहीं थी और मैं जल्दी में थी. पर फिर भी आवाज़ को भरसक मुलायम बना कर मैंने कहा, " हाँ आँटी. बताइये कैसी हैं आप?"
"बेटा, मैं तो ठीक हूँ. पर तुम्हारे अंकल की तबियत काफ़ी ख़राब है. हम लोग पिछले दस दिन से अस्पताल में ही हैं," बोलते-बोलते उनका गला भर्रा गया तो मुझे भी चिंता हो गयी.
"क्या हुआ आँटी? कुछ सीरियस तो नहीं है?"
" सीरियस ही है बेटा. उनको एक हफ्ते पहले दिल का दौरा पड़ा था और अब.. .. अब लकवा मार गया है. कुछ बोल भी नहीं पा रहे हैं. डॉक्टर भी कुछ उम्मीद नहीं दिला रहे हैं," कहते हुआ उनका गला रुंध गया.
मीटिंग समाप्त होते-होते शाम हो गयी. मैंने सोचा घर जाते हुए अस्पताल की तरफ से निकल चलती हूँ. वहाँ जा कर देखा तो अंकल की हालत सचमुच काफी खराब थी. डॉक्टरों ने लगभग जवाब दे दिया था.
अस्पताल से निकलते हुए मैंने कहा, "आँटी किसी चीज़ की ज़रुरत हो तो बताइये."
कमला आँटी पहले तो कुछ हिचकिचाईं पर फिर बोलीं, "बेटा, दस दिन से अंकल अस्पताल में पड़े हैं. अब तुमसे क्या छिपाना? मेरे पास जितना पैसा घर में था, सब इलाज में खर्च हो गया है. इनके अकाउंट में तो पैसा है, परन्तु निकालें कैसे? यह तो चेक पर दस्तखत नहीं कर सकते और एटीएम कार्ड का पिन भी बस इन्हे ही पता है. इनका खाता तुम्हारे ही बैंक में है. यह रही इनकी पासबुक और चेक बुक. क्या तुम बैंक से पैसे निकालने में कुछ मदद कर सकती हो?" कहते हुए आँटी ने पास-बुक और चेक बुक मेरे हाथों में रख दी. आँटी को पता था कि मैं उसी बैंक में नौकरी करती हूँ.
"आँटी, आपका भी अंकल के साथ जॉइंट अकाउंट तो होगा ना? आप चेक साइन कर दीजिये, मैं कल बैंक खुलते ही आपके पास पैसे भिजवा दूंगी."
"नहीं बेटा नहीं. वही तो नहीं है. तुम्हे तो पता ही है मैं तो इनके कामों में कभी दखल नहीं देती रही. इन्होने भी कभी नहीं कहा और न ही मुझे कभी ज़रुरत महसूस हुई. बैंक का सारा काम तो अंकल खुद ही करते थे. पर पैसे तो इनके इलाज के लिए ही चाहिए. तुम तो बैंक में ही नौकरी करती हो. किसी तरह बैंक से निकलवा दोगी ना?" आँटी ने इतनी मासूमियत भरी उम्मीद से मेरी ओर देखा तो मुझे समझ न आया कि मैं क्या करूँ. बस चेक लेकर सोचती हुई घर आ गयी.
घर जाकर चैक फिर से देखा और बैंक की शाखा का नाम पढ़ा तो याद आया कि वहाँ का मैनेजर तो मुझे अच्छी तरह से जानता है. झटपट मैंने उसे फ़ोन किया और सारी स्थिति समझाई. उसने तुरंत मौके की नज़ाकत समझी और मुझे आश्वासन दिया, "कोई बात नहीं. मैं भाटिया साहब को अच्छी तरह से जानता हूँ. उनके सारे खाते हमारी ब्रांच में ही हैं. सुबह बैंक खुलते ही मैं खुद भाटिया साहब के पास अस्पताल चला जाऊंगा और उनके दस्तखत करवा के पैसे उनके पास भिजवा दूँगा. आप बिलकुल फिक्र मत कीजिये."
बैंक के निर्देशों के अनुसार यदि कोई खाताधारी किसी कारण से दस्तखत करने की हालत में नहीं होता है तो कोई अधिकारी अपने सामने उसका अंगूठा लगवा कर उसके खाते से पैसे निकालने के लिए अधिकृत कर सकता है. वह मैनेजर इन निर्देशों से भली-भाँति अवगत था, और भाटिया अंकल की मदद करने के लिए भी तैयार था, यह जान कर मुझे बहुत तसल्ली हुई और मैं चैन की नींद सो गयी.
सुबह दफ्तर जाने की जगह मैंने कार अस्पताल की और मोड़ ली. मुझे बहुत खुशी हुई जब नौ बजते न बजते बैंक का मैनेजर भी वहां पहुँच गया. उसके हाथ में विड्राल फॉर्म था, जामनी स्याही वाला इंक-पैड भी था. बेचारा पूरी तैयारी से आया था. आते ही उसने भाटिया अंकल से खूब गर्म-जोशी से नमस्ते की तो अंकल के चेहरे पर भी कुछ पहचान वाले भाव आते दिखे. फिर मैनेजर ने कहा, "भाटिया साहब, आपके अकाउंट से पच्चीस हज़ार रुपये निकाल कर आपकी मैडम को दे दूं?"
जवाब में जब अंकल ने अपना सिर नकारात्मक तरीके से हिलाया तो मैनेजर समेत हम सब सकते में आ गये.
उसने फिर कहा, "भाटिया साहब! आपके इलाज के लिए आपकी मैडम को पैसा चाहिए. आपके अकाउंट से निकाल कर दे दूँ?" जवाब फिर नकारात्मक था.
बेचारे मैनेजर ने तीन-चार बार प्रयास किया पर हर बार भाटिया अंकल ने सर हिला कर साफ़ मना कर दिया. उसने हार न मानी और फिर कहा, "भाटिया साहब, आपको पता है कि यह पैसा आपके इलाज के लिए ही चाहिये?"
भाटिया अंकल ने अब सकारात्मक सर हिलाया, परन्तु पैसे देने के नाम पर जवाब में फिर ना ही मिला.
हाँलाकि यह अकाउंट भाटिया अंकल के अपने अकेले के नाम में ही था, उन्होंने उस पर कोई नॉमिनेशन भी नहीं कर रखा था. बैंक मैनेजर ने आख़िरी कोशिश की, "भाटिया साहब, आपकी मैडम को इस अकाउंट में नौमिनी बना दूँ?" जवाब अब भी नकारात्मक था.
आपका अकाउंट कमला जी के साथ जॉइंट कर दूँ?" जवाब मैं फिर नहीं. ताज्जुब की बात तो यह कि भाटिया अंकल, जो कल तक न कुछ न बोल रहे थे और न ही समझ रहे थे, बैंक से पैसे निकालने के मामले में आज सर हिला कर साफ़ जवाब दे रहे थे.
मैनेजर ने मेरी ओर लाचारी से देखा और हम दोनों कमरे के बाहर आ गये. खाते से पैसे निकालने में उसने अपनी मजबूरी ज़ाहिर कर दी, "मैडम, अच्छा हुआ आप यहाँ आ गयी. नहीं तो शायद आप मेरा विश्वास भी नहीं करतीं. आपने खुद अपनी आँखों से देखा है. भाटिया साहब तो साफ़ मना कर रहे हैं. ऐसे में कोई भी उनके अकाउंट से पैसे निकालने की आज्ञा कैसे दे सकता है? मुझे खुशी है कि आप खुद यहाँ पर मौजूद हैं. नहीं तो शायद आप मेरी बात पर यकीन ही नहीं करतीं. "
उसकी बात तो सोलह आने खरी थी. अब मैनेजर तो बैंक वापस चला गया और मैं अंदर जाकर कमला आँटी को उसकी लाचारी समझाने की व्यर्थ कोशिश करने लगी. अस्पताल से आते हुए मैं उन्हें अपने पास से दस हज़ार रुपये दे आयी. साथ ही आश्वासन भी कि जितने रुपये चाहिए, आप मुझे बता दीजियेगा, आखिर अंकल का इलाज तो करवाना ही है."
शाम को बैंक से लौटते हुए मैं कमला आँटी के पास फिर गयी. वह अभी भी दुखी थीं. मैंने भी उनसे पूछ ही लिया, "आँटी, आपने कभी अंकल को अकाउंट जॉइंट करने के लिए नहीं कहा क्या?"
"कहा था, बेटा. कई बार कहा था, पर वह मेरी कब मानते हैं? हमेशा यही कहते हैं कि मैं क्या इतनी जल्दी मरने जा रहा हूँ? एक बार शायद यह भी कह रहे थे कि यह मेरा पेंशन अकाउंट है, जॉइंट नहीं हो सकता है. "
"नहीं नहीं आँटी, शायद उन्हें पता नहीं है. अभी तो पेंशन अकाउंट भी जॉइंट हो सकता है. चलो अंकल ठीक हो जाएंगे, तब उनका और आपका अकाउंट जॉइंट करवा देंगे और नॉमिनेशन भी करवा देंगे." यह कह कर मैं भी घर आ गयी.
रास्ते भर गाड़ी चलाते हुए मैं यही सोचती रही कि भाटिया अंकल वैसे तो आँटी का इतना ख्याल रखते हैं, पर इतनी महत्वपूर्ण बात पर कैसे ध्यान नहीं दिया?
कुछ दिन और निकल गए. भाटिया अंकल की तबियत और बिगड़ती गयी. आखिरकार, लगभग दस दिन बाद उन्होंने अंतिम सांस ले ली और कमला आँटी को रोता-बिलखता छोड़ परलोक सिधार गए. पति के जाने के अकथनीय दुःख के साथ-साथ आँटी के पास अस्पताल का बड़ा सा बिल भी आ गया. उनका अंतिम संस्कार होने तक आँटी के ऊपर ऋण काफी बढ़ गया था.
घर की सदस्य जैसी होने के नाते मैं लगभग रोज़ ही उनके पास जा रही थी और मैंने जो पहला काम किया वह यह कि भाटिया अंकल के सभी खाते बंद करवा के उन्हें कमला आँटी के नाम करवाया. इन कामों में बहुत से फॉर्म पूरे करने पड़ते हैं पर बैंक में नौकरी करने की वजह से मुझे उन सब का ज्ञान था. आँटी को सिर्फ इन्डेम्निटी बांड, एफिडेविट, हेयरशिप सर्टिफिकेट आदि पर अनगिनत दस्तखत ही करने पड़े थे जो मुझ में पूर्ण विश्वास होने के कारण वह करती चली गयीं और रिकॉर्ड टाइम में मैंने भाटिया अंकल के सभी खाते आँटी के नाम में करवा दिए. आँटी ने चैन की सांस ली और सारे ऋणों का भुगतान कर दिया. अपने खातों में उन्होंने नॉमिनी भी मनोनीत कर लिया. अंकल के शेयर्स, म्यूच्यूअल फंड्स आदि का भी यही हाल था. सबको ठीक करने में कुछ समय अवश्य लगा पर मुझे यह सब कार्य पूर्ण करके बहुत संतोष की प्राप्ति हुई.
भाटिया अंकल सरकारी नौकरी से रिटायर हुए थे. अब आँटी की फॅमिली पेंशन भी आनी शुरू हो गयी थी. और तो और, उन्होंने एटीएम से पैसे निकालना, चेक जमा करवाना और पासबुक में एंट्री करवाना भी सीख लिया था. सार यह कि उनका जीवन एक ढर्रे पर चल निकला था.
इस बात को कई महीने निकल गए पर एक बात मेरे दिल को बार-बार कचोटती रही. ऐसा क्या था कि अंकल ने अपने अकाउंट से पैसे नहीं निकालने दिये. फिर एक बार मौका निकाल कर मैंने आँटी से पूछ ही लिया. आँटी सकपका कर चुपचाप ज़मीन की ओर देखने लगीं. मुझे लगा कि शायद मुझे यह सवाल नहीं पूछना चाहिए था. पर कुछ क्षण पश्चात आँटी जैसे हिम्मत बटोर कर बोलीं, "बेटा, क्या बताऊँ? पैसा चीज़ ही ऐसी है. जब अपने ही सगे धोखा देते हैं, तब शायद आदमी के मन से सभी लोगों पर से विश्वास उठ जाता है. इनके साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ था,"
मैं चुपचाप आँटी की ओर देखती रही; मेरी उत्सुकता और जागृत हो गयी थी.
आँटी आगे बोलीं, "जब तुम्हारे अंकल मेडिकल की पढ़ाई कर रहे थे, उनके पिता यानी कि मेरे ससुर जी बहुत बीमार थे. पैसों की ज़रुरत पड़ती रहती थी. अतः उन्होंने अपनी चेक-बुक ब्लैंक साइन करके रख दी थी. मेरे जेठ के हाथ वो चेक बुक पड़ गयी और उन्होंने अकाउंट से सारे पैसे निकाल लिए. ना ससुर जी के इलाज के लिए पैसे बचे और न इनकी पढ़ाई के लिए. मेरी सास पैसे-पैसे के लिए मोहताज हो गयीं. फिर अपने जेवर बेच-बाच कर उन्होंने इनकी मेडिकल की पढ़ाई पूरी करवाई और साथ ही सीख भी दी कि पैसे के मामले में किसी पर भी विश्वास नहीं करना, अपनी बीवी पर भी नहीं. तुम्हारे अंकल ने शायद अपनी ज़िंदगी के उस कड़वे सत्य को आत्मसात कर लिया था और अपनी माँ की सीख को भी. इसीलिये वह अपने पैसे पर अपना पूरा नियंत्रण रखते थे और उस लकवे की हालत में भी उनके अंतर्मन में वही एहसास रहा होगा. “
अब सब कुछ शीशे की तरह साफ़ था परन्तु आँटी तनाव मैं लग रही थीं. मैंने बात बदली, "चलिए छोड़िये आँटी. मैं आपको चाय बना कर पिलाती हूँ."
समय बीतता गया, कमला आँटी की मनोस्थिति अब लगभग ठीक हो गयी थी और अपने काम संभालने से उनमें एक नये आत्म-विश्वास का संचार भी हो रहा था. वैसे तो कमला आँटी पढ़ी-लिखी थीं, हिंदी साहित्य में उन्होंने स्नातकोत्तर स्तर तक पढ़ाई की थी परन्तु पिछले चालीस सालों में केवल घर-बार में ही विलीन रहने से उनका जो आत्म विश्वास खो सा गया था, धीरे-धीरे वापस आने लगा था.
मैं जब भी उनसे मिलने जाती मुझे यही ख्याल बार-बार सताता था कि हरेक व्यक्ति भली-भांति जानता है कि उसे एक दिन इस दुनिया से जाना ही है. बुढ़ापे की तो छोडो, ज़िंदगी का तो कभी कोई भरोसा नहीं है. पर फिर भी अपनी मृत्यु के पश्चात अपने प्रिय-जनों की आर्थिक सुरक्षा बारे में कितने लोग सोचते हैं? छोटी -छोटी चीज़ें हैं जैसे कि अपना बैंक खाता जॉइंट करवाना, अपने सभी खातों, शेयर्स, म्यूच्यूअल फण्ड आदि में नॉमिनी का पंजीकरण करवाना आदि. साथ ही अपनी वसीयत करना भी तो कितना महत्त्वपूर्ण कार्य है. पर इन सब के बारे में ज्यादातर लोग सोचते ही नहीं हैं? अब कमला आँटी को ही लो. उन बिचारी को तो यह भी पता नहीं था कि वे फॅमिली पेंशन की हक़दार हैं, अंकल के पीपीओ आदि की जानकारी तो बहुत दूर की बातें हैं. लोग ज़िंदा रहते हुए अपने परिवार का कितना ख्याल रखते हैं परन्तु कभी यह नहीं सोचते कि मेरे मरने के बाद उनका क्या होगा?
धीरे-धीरे समय निकलता गया और कमला आँटी के जीवन में सब कुछ सामान्य सा हो गया. उनके घर मेरा आना-जाना भी कम हो गया. पर अचानक एक दिन आँटी का फ़ोन आया, "बेटा, शाम को दफ्तर से लौटते हुए कुछ देर के लिए घर आ सकती हो क्या?"
"हाँ हाँ. ज़रूर आँटी. कोई ख़ास बात है?"
"नहीं, कुछ ख़ास नहीं पर शाम को आना ज़रूर." आवाज़ से आँटी खुश लग रही थीं.
शाम पड़े जब मैं उनके घर पहुँची तो उन्होंने मेरे आगे लड्डू रख दिए. चेहरे पर बड़ी सी मुस्कान थी.
"लड्डू किस खुशी में आँटी?" मैंने कौतूहलवश पूछा, तो एक प्यारी सी मुस्कान उनके चेहरे पर फैल गयी.
"पहले लड्डू खाओ बेटा." बहुत दिन बाद कमला आँटी को इतना खुश देखा था. दिल को अच्छा लगा.
लड्डू बहुत स्वादिष्ट थे. एक के बाद मैंने दूसरा भी उठा लिया. तब तक आँटी अंदर के कमरे में गयी और लौट कर सरिता मैगज़ीन की एक प्रति मेरे हाथ में रख दी.
"यह देखो. तुम्हारी आँटी अब लेखिका बन गयी है. मेरी पहली कहानी इसमें छपी है."
" आपकी कहानी? वाह आँटी! बधाई हो."
"हाँ, कहानी क्या? आपबीती ही समझ लो. मैंने सोचा क्यों न सब लोगों को बताऊँ कि पैसे के मामले में पत्नी के साथ साझेदारी न करने से क्या होता है? और संयुक्त खाता न खोलने से उसको कितनी परेशानी हो सकती है. वैसे ही कोरोना-वायरस इतना फैला हुआ है, क्या पता किसका नंबर कब लग जाए. तुम्हारी मदद न मिलती तो मैं पता नहीं क्या करती. जैसा मेरे साथ हुआ, भगवान् न करे किसी के साथ हो."
कहते-कहते कमला आँटी की आँखे नम हो चली थी और साथ में मेरी भी.
ज़िन्दगी की राह (लघु कथा)
सात वर्ष पहले की वह रात, जब मैं उस से पहली बार मिली थी, मुझे आज भी याद है. शनिवार का दिन था, रात के 10 बज चुके थे. सोने से पहले मैं कपड़े बदलने जा रही थी. तभी रात के सन्नाटे को चीरती हुई, बाहर की घंटी बजी. पतिदेव बिस्तर में लेट चुके थे. मेरी ओर प्रश्नसूचक दृष्टि से देख कर बोले, "इस वक़्त कौन हो सकता है?"
"क्या पता," कहते हुए मेरे मुख पर भी प्रश्नचिन्ह उभर आया.
कुछ दुखी, कुछ अनमने से होकर, वह बिस्तर से उठ कर अपना गाउन लपेट ही रहे थे कि घंटी दुबारा बज उठी. इस बार तो घंटी तीन बार बजी - डिंग-डाँग, डिंग-डाँग, डिंग-डाँग. आगंतुक कुछ ज्यादा ही जल्दी में लगता था.
"अरे, इस वक़्त कौन आ गया? यह भी भला किसी के घर जाने का वक़्त है क्या?" बड़बड़ाते हुए पति ने दरवाज़े की ओर तेज़ी से कदम बढाये.
दरवाज़ा खुलने की आवाज़ के साथ ही मुझे किसी महिला की आवाज़ सुनाई पड़ी. वह बहुत जल्दी-जल्दी कुछ कह रही थी, और ऐसा लग रहा था कि मेरे पति उस से कदाचित सहमत नहीं हो रहे थे. यह आवाज़ तो हमारे किसी परिचित की नहीं लगती, सोचते हुए मैंने कमरे के बाहर झाँका.
"हैलो!!! आप रंजना हैं ना? मैं दीप्ति, दीप्ति जोशी," कहते हुए वह मेरी ओर आ गयी और अपना दाहिना हाथ मेरी ओर बढ़ा दिया.
हाथ पकड़े -पकड़े ही वह लगातार बोलती चली गयी, "मैं आप की कॉलोनी में ही रहती हूँ. उधर 251 नंबर में. बहुत दिन से आप लोगों से मिलने की इच्छा थी, मौका ही नहीं मिल रहा था. आज मैंने सोचा बस अब और नहीं, आज तो मिलना ही है."
"आइये ना," कुछ बुझे से मन से मैंने बोला. मैं थकी हुई थी और उस समय अतिथि-सत्कार के मूड में तो बिलकुल नहीं थी.
"नहीं-नहीं, यहाँ नहीं. चलिए-चलिए, हम लोग कॉफ़ी पीने ताज में चल रहे हैं. "
"ताज में? इस वक़्त? कल चलें तो?"
"अरे नहीं. कल किसने देखा है? हम आज ही चलेंगे. बहुत मज़ा आएगा. कॉफ़ी शॉप तो खुली ही होगी."
इससे पहले कि मैं कुछ और कह पाती, दीप्ति जल्दी से दरवाज़े की ओर मुड़ गयी और जाते-जाते एक साँस में बोल गयी, "जल्दी से आप दोनों बाहर आ जाओ. कपडे-वपड़े बदलने की ज़रुरत नहीं हैं. किसी को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि आपने क्या पहना हुआ है. मेरी कार बाहर सड़क के बीच में खड़ी है. इससे पहले कि लोग हॉर्न मारने शुरू कर दें मैं चली. कार में आपका इंतज़ार कर रही हूँ. "
मैं और मेरे पति एक दूसरे को देखते रह गए और दीप्ति सटाक से घर के बाहर थी. अब हमारे पास और कोई चारा तो था नहीं, हम दोनों ने जल्दी से जीन्स और शर्ट पहने और दीप्ति की कार में पहुँच गए.
तो यह थी दीप्ति, जीवन से भरपूर, कोई दिखावेबाज़ी नहीं, जो दिल में, वही ज़बान पर. हालाँकि मैंने उसे कॉलोनी में आते-जाते कई बार देखा था परन्तु आमने-सामने आज मैं उससे पहली बार मिल रही थी. पर मुझे लग रहा था कि जैसे मैं उसे सदियों से जानती हूँ. लम्बी कद-काठी, छरहरा बदन, दोनों गालों में डिंपल जो मुस्कराते वक़्त और भी गहरे हो जाते थे. कंधे के नीचे तक झूलते उसके बाल जो उसके लम्बे चेहरे को मानो फ्रेम की भाँति सजा देते थे. इन सब के ऊपर उसकी बड़ी-बड़ी काली आँखें जो बिन बोले ही कितना कुछ बोल जाती थीं. पर आँखों को बोलने का मौका तो तब मिलता जब दीप्ति कभी बोलना बंद करती. कुल मिला कर कहें तो एक बेहद खुशमिज़ाज़ और ज़िंदा-दिल लड़की.
मुझे और दीप्ति को दोस्ती करने में बिलकुल समय न लगा. हम दोनों ही देहरादून के रहने वाले थे और दोनों ही पब्लिक सेक्टर बैंकों में नौकरी करते थे. पहले साधारण कैपुचिनो के बाद आयरिश कॉफ़ी और फिर कोल्ड कॉफी विद आइस क्रीम, गप्पें मारते-मारते कब रात के तीन बज गए, पता ही नहीं चला. बातों ही बातों में उसने बताया कि उसका एक बॉयफ्रेंड भी है दीपक, जो इस समय एम बी ए करने अमेरिका गया हुआ है, एक वर्ष बाद लौटेगा. हालाँकि उस के माता-पिता इस विवाह के पक्ष में नहीं हैं क्योंकि दीप्ति का रंग साँवला है, पर दीपक ने अपना मन पक्का कर लिया है कि वह शादी करेगा तो उसी से, नहीं तो किसी से नहीं.
उस रात जो हमारे बीच मित्रता का एक अटूट बंधन बन गया, दिन-प्रति-दिन प्रगाढ़ होता चला गया. लगता था जैसे पिछले जन्म का कोई नाता था. हम रोज़ शाम को इकट्ठे घूमते, इकट्ठे शॉपिंग करते और फिल्में देखने भी साथ जाते. कुछ ही महीनों में दीप्ति एक प्रकार से परिवार की तीसरी सदस्य ही बन गयी थी.
दीप्ति के व्यक्तित्व में दिखावेबाजी का नामो-निशान भी न था. दो टूक बातें और कोई लगाव-छिपाव नहीं. एक रविवार के दिन सुबह-सुबह बाहर की घंटी तीन बार बजी ... वही जल्दीबाज़ी जो अब तक दीप्ति की पहचान बन चुकी थी. दरवाज़ा खोला तो निश्चय ही दीप्ति थी. ना हाय न हैलो, न दुआ ना सलाम. बस सीधे वह मेरे किचन में थी. इस से पहले कि मैं कुछ समझ सकूं, उसने ड्राअर खोला और सारे चम्मच और काँटे उठा लिए, "मेरे घर में कुछ लोग लंच पर आ रहे हैं और मेरे पास चम्मच कम हैं. तुम लोग आज हाथ से खा लेना. चलो अच्छा दो चम्मच रख लो. बाकी सब शाम को लौटा दूँगीं."
भागते-भागते उसने पीछे मुड़ कर देखा, "अच्छा फिर शाम को मिलते हैं. मैं बचा हुआ खाना ले आऊंगी, इकट्ठे खाएंगे."
मैं मुस्करा दी. दीप्ति मुझ से कुछ साल छोटी थी और मुझे उस पर छोटी बहन जैसा ही प्यार आता था. शाम हुई और फिर रात हो गयी. मैंने डिनर में कुछ नहीं बनाया; दीप्ति का इंतज़ार कर रही थी. अपने वायदे के अनुसार वह मेरे चम्मच-काँटे लेकर वापस आ गयी और आते ही बोली, "कुछ खाना नहीं बचा. मेरे मेहमान सब खा गए. तेरे फ्रिज में कुछ पड़ा है क्या? निकाल ले. मैं तब तक खिचड़ी बनाती हूँ."
ऐसे ही महीने निकल गये. उसकी सोहबत में पता नहीं समय कहाँ उड़ जाता था. फिर एक दिन कुछ ऐसा हुआ जिसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की थी. मैं अपने गेट के बाहर खड़ी थी और दीप्ति दफ्तर से वापस आ रही थी. दूर से देखा तो मन में एक खटका सा हुआ. उसकी चाल कुछ ठीक नहीं लग रही थी. पास आयी तो मैंने पूछा, "कैसे चल रही है टेढ़ी-मेढ़ी? क्या हुआ? सब ठीक तो है न?"
वह फक से हँस पड़ी और उसके गालों के डिंपल और गहरे हो गए, "अरे कुछ नहीं रे, कुछ दिनों से सीधे नहीं चल पा रही हूँ. मेरा डॉक्टर कह रहा था कि कमज़ोरी होगी, कुछ विटामिन खा लो. पर मुझे लगता है कि कहीं तो कुछ गड़बड़ है. कल किसी स्पेशलिस्ट को दिखाने की सोच रही हूँ. चल अभी देर हो रही है, चलती हूँ." यह कह कर वह कुछ झूमती हुई, कुछ लड़खड़ाती हुई अपने फ्लैट की ओर चल पड़ी.
तीन दिन बाद उसका फ़ोन आया, " हे रंजना! अरे यार मैं हॉस्पिटल में पहुँच गयी हूँ. सब कुछ इतनी जल्दी में हुआ कि मैं तुझे बता भी नहीं पायी."
"क्या! हॉस्पिटल में? कौन से हॉस्पिटल में? क्या हुआ?"
"कुछ ज़्यादा नहीं. मेरे दिमाग में कोई कीड़ा है, यह तो मुझे हमेशा से ही पता था पर अब न्यूरोलॉजिस्ट को एक ट्यूमर भी मिल गया है. शायद कीड़े का घर होगा," कह कर वह ज़ोर से हंस पडी.
"साफ़-साफ़ बता. पहेलियाँ मत बुझा," मैंने फटकार लगाई.
“डॉक्टर ने कहा है तुरंत ऑपरेशन करना चाहिए. मैंने कहा ठीक है, जैसी आपकी आज्ञा! मम्मी को देहरादून से बुला लिया है. कल ऑपरेशन है. तू आएगी न मुझे हॉस्पिटल में मिलने?" मैं सकते में आ गयी और कुछ बोल भी न सकी.
इतने बड़े और सीरियस ऑपरेशन की पूर्व-संध्या को कोई इतना चिंतामुक्त कैसे हो सकता है?
मैं उसकी मम्मी से मिलने और दीप्ति का हाल जानने रोज़ अस्पताल जाती रही. पांच दिन बाद उसे आयी. सी. यू. से कमरे में लाया गया. उसके सिर के सारे बाल घुटा दिए गए थे और पूरे सिर पर सफ़ेद पट्टी बंधी हुयी थी. शक्ल से कुछ कमज़ोर लग रही थी पर उसकी मुस्कराहट ज्यों की त्यों थी. कितनी बहादुर लड़की है, मेरे दिल में उसके लिए इज़्ज़त और बढ़ गयी. पर मुझे लगा कि उसका चेहरा कुछ बदला-बदला सा लग रहा है. ऐसा लगा कि कहीं उसके चेहरे पर लकवा तो नहीं मार गया, पर पूछने की हिम्मत नहीं पड़ रही थी.
उसने मेरा दिमाग तुरंत पढ़ लिया, "क्या देख रही है? मेरा मुंह टेढ़ा लग रहा है ना? वो बद्तमीज़ ट्यूमर मेरे दिमाग की नर्व के चारों ओर लिपटा हुआ था. बेचारे सर्जन ने बहुत कोशिश की, पर हार के उसे वह नर्व काटनी ही पड़ गयी." कह कर वह हँस दी पर उस हँसी के पीछे छिपी मायूसी साफ़ दिख रही थी.
"डॉक्टर का कहना था भगवान् का शुक्र करो तुम्हारी जान बच गयी. शकल का क्या है? जो मुझे जानते हैं, मुझसे प्यार करते हैं वह सब तो खुश ही होंगे कि मैं ज़िंदा हूँ. जो मुझे जानते नहीं, वह कुछ भी सोचें, मुझे क्या फ़र्क़ पड़ता है? क्यों ठीक है ना?" फिर वही हज़ार वॉट बल्ब वाली मुस्कराहट!
जीवन की इतनी बड़ी मार उसने कैसे हँसते-हँसते झेल ली, देख कर मुझे बहुत आश्चर्य हुआ. हॉस्पिटल की घंटी बजने लगी, आगंतुकों के घर जाने का समय हो गया था. मैं भी घर लौट आयी पर रास्ते भर सोचती रही कि बेचारी दीप्ति के साथ भगवान् ने कितना अन्याय किया है.
दो दिन बाद जब मैं अस्पताल पहुँची तो देखा दीप्ति काला चश्मा लगा कर बिस्तर में लेटी हुयी है.
"अरे वाह! क्या स्टाइल है? अंदर कमरे में भी काला चश्मा?" मैंने बिना सोचे समझे ही बोल दिया. पर उसका उतरा हुआ चेहरा देख कर तुरंत ही मुझे अपनी गलती का एहसास हो गया. उसने मुझे गंभीरता से बताया कि लकवे की वजह से उसकी पलक झपक नहीं रही है और उसमे इन्फेक्शन का खतरा है. इसीलिये डॉक्टर ने उसकी आँख पर टाँके लगा दिए हैं. उसी को छिपाने के लिए उसे चश्मा लगाना पड़ रहा है. उसके ऑपरेशन के बाद उस दिन पहली बार लगा कि वह परेशान है.
मैंने उसे सांत्वना देने का प्रयास तो किया, "कोई बात नहीं, कुछ दिन की बात है. जल्दी ही सब ठीक हो जायेगा," पर मेरा अपना दिल उसकी यह दशा देख कर डूब रहा था.
अस्पताल से डिस्चार्ज होने के उपरान्त वह स्वास्थ्य लाभ के लिए अपने माता-पिता के साथ देहरादून चली गयी. लगभग दो महीने बाद वह वापस दिल्ली अपने घर आ गयी. वही पतली-दुबली और लम्बी आत्म-विश्वासी लड़की. उसके बाल भी कुछ बढ़ गए थे, हालाँकि थे छोटे ही. बस अब एक ही फर्क आ गया था. वह हर समय बड़ा सा काला चश्मा लगा कर रखती थी जिससे उसकी बंद बायीं आँख और विकृत चेहरा किसी को पूरी तरह दिखाई न दे.
एक शाम जब हम दोनों कोलोनी में वॉक कर रहे थे, उसने अपने दिल का दर्द मुझे बता ही दिया, "रंजना, क्या तुम्हें लगता है कि मेरी ऐसी सूरत देख कर भी दीपक मुझसे वैसे ही प्रेम करेगा जैसे वह पहले करता था? क्या तुम्हें लगता है कि वह अभी भी मुझसे शादी करना चाहेगा?"
मुझे समझ नहीं आया कि मुझे क्या कहना चाहिए. मैं तो दीपक को कभी मिली भी नहीं थी. पर हिम्मत कर के मैंने कहा, "अगर वह तुमसे सच्चा प्रेम करता है तो ज़रूर करेगा." मेरा दिल जानता था कि मैं उसे खुश करने के लिए ही ऐसा कह रही थी.
"पता है रंजना वह मुझे हज़ारों टेक्स्ट मैसेज भेज चुका है. और पता नहीं सैंकड़ों बार उसके फ़ोन आ चुके हैं पर मैं उसको कोई जवाब नहीं दे रही हूँ," मैंने देखा वह अपना दुपट्टा उंगली में लपेटे जा रही थी. स्पष्ट था वह काफी परेशान थी और किसी उलझन में पड़ी हुयी थी.
" हैं? ऐसा क्यों पागल? तूने उसे अपनी सर्जरी के बारे में बताया नहीं क्या? उसको तेरी कितनी फ़िक्र हो रही होगी? बेचारा क्या सोचता होगा?" मैंने उसे प्यार भरी फटकार लगाई.
"जानती हूँ, जानती हूँ. सर्जरी के टाइम उसके सेमेस्टर एग्जाम होने वाले थे, उसे टेंशन हो जाती तो पढ़ता कैसे? बाद में मैंने सोचा कि क्या बताऊँ. जिन आँखों में डूब जाने की बात वह हमेशा करता था, उनमें से एक तो हमेशा के लिए बंद हो गयी है. मैं नहीं सोचती कि उसे अब मुझ से शादी करनी चाहिए."
"पर उसने तुमसे शादी का वायदा किया है. तुम्हे उसे बताना तो चाहिए था. उसका इतना हक़ तो बनता है न?"
"मुझे पता है रंजना. पर मुझे रिजेक्शन से डर लगता है. अगर उसने मना कर दिया तो?"
"पर जानने का अधिकार तो उसे है न?" मैंने फिर वही बात दोहराई.
"पर मैं यह समझती हूँ कि वह एक बिना आँख की लड़की से क्यों शादी करेगा? उसे करनी भी नहीं चाहिए. सारी ज़िंदगी क्यों ख़राब करेगा बेचारा? मुझे कोई हक़ नहीं कि मैं उसकी ज़िंदगी खराब करूँ. अभी तो हमारी शादी हुयी नहीं है. उसे कोई और मिल जाएगी. और मैं उसकी ज़िंदगी से कहीं दूर चली जाऊँगी. "
उसका गला रुँध गया था और उसका घर भी आ गया था. बिना कुछ बोले वह घर की ओर मुड़ गयी. शाम के अँधेरे में भी उसकी आँखों से बहते आँसू मुझ से छिप न सके.
अगले दो-तीन सप्ताह मैं भी काम में कुछ ज्यादा ही मशगूल रही. बैंक में इंस्पेक्शन चल रहा था. फिर एक दिन अचानक वह मुझे दिखी, टैक्सी में कहीं जा रही थी. उसने टैक्सी रुकवाई और बैठे-बैठे ही बोली, "रंजना, मेरी ट्रांसफर हो गयी है. मैं दिल्ली से बाहर जा रही हूँ."
"क्या? अचानक? कहाँ जा रही है?"
"सब बताऊँगीं पर अभी नहीं. फ्लाइट छूट जाएगी. मैं वहां पहुँच कर तुम्हे फ़ोन करती हूँ. बाय-बाय !!" कहते-कहते उसने ड्राइवर को चलने का इशारा किया और टैक्सी चल पड़ी.
कुछ देर तो मैं वहाँ जड़वत खड़ी टैक्सी को जाते हुए देखती रही फिर घर की ओर मुड़ गयी. यह कैसा फेयरवेल था? सहेली से बिछड़ने का दुःख भी हुआ और गुस्सा भी बहुत आया. मैं वहाँ खड़ी न होती तो वह शायद मुझे बता कर भी न जाती. इसी को दोस्ती कहते हैं क्या?
मैंने उसके फ़ोन का हफ़्तों इंतज़ार किया. न कोई फ़ोन आया और ना ही कोई मैसेज. मुझे तो ये भी नहीं पता था कि वह गयी किस शहर में. सेलफोन पर फ़ोन किया तो एक ही जवाब, "आप जिस फ़ोन से संपर्क स्थापित करना चाह रहे हैं वो या तो स्विचड ऑफ है या कवरेज क्षेत्र से बाहर है."
और कुछ दिन बाद, "यह नंबर मौजूद नहीं है."
उसने अपना फ़ोन नंबर बदल लिया था और मुझे फ़ोन करने की ज़रुरत भी नहीं समझी थी. सेलफ़ोन तो बदला ही, उसने अपना फेसबुक अकाउंट भी डी-एक्टिवेट कर दिया था. उसको भेजी हुई ई-मेल भी वापस आ रही थी. मन उसकी परेशानी को लेकर पहले ही उदास था, अब मुझे उस पर क्रोध भी आ रहा था कि उसने मेरी दोस्ती का कैसा भद्दा मज़ाक उड़ाया था.
इस घटना को कई वर्ष बीत गए. ज़िंदगी अपनी डगर पर चलती गयी. नये रिश्ते बनते गए. नौकरी की बढ़ती हुयी ज़िम्मेदारियाँ और घर पर बढ़ती उम्र के दो बच्चों की देख-रेख, कुछ सोचने के लिए दो क्षण भी नहीं मिलते थे. दीप्ति द्वारा दिया गया घाव भी अब संभवतः भर चला था, हालांकि कभी-कभी अचानक उसकी बहुत याद आती. कहाँ होगी, कैसी होगी? कौन जाने?
फिर ऐसे ही एक दिन अचानक दफ्तर में निर्देश मिले. मुझे अहमदाबाद के एक प्रतिष्ठित संस्थान में तीन दिन के ट्रेनिंग प्रोग्राम के लिए जाना था. जाने का मन तो नहीं था, पर प्रोग्राम अच्छा था, सो मना नहीं किया और मैं अहमदाबाद पहुँच गयी. वहाँ अलग-अलग संस्थानों और बैंकों से अधिकारीगण आये हुए थे. पहले दिन ही जब सब प्रशिक्षणार्थी अपना-अपना परिचय दे रहे थे, मैं एक व्यक्ति का परिचय सुन कर सतर्क हो गयी. वह उसी बैंक का था जिसमे दीप्ति काम करती थी. मैंने तभी सोच लिया कि मौका लगते ही उससे दीप्ति के बारे में पूछूँगी. मौका हाथ तो लगा परन्तु आख़िरी दिन. हम लोग लंच के समय एक ही मेज़ पर थे और मैं पूछे बगैर न रह सकी, "क्या आप दीप्ति जोशी को जानते हैं? कई वर्ष पूर्व वह दिल्ली हेड ऑफिस में पोस्टेड थी. पता नहीं अभी कहाँ हैं?"
"हाँ, हाँ. बहुत अच्छी तरह से जानता हूँ उसे. दीप्ति मेरी बैच-मेट ही तो है. आजकल वह मुंबई मुख्य शाखा में पोस्टेड है. क्या आप जानती हैं उसे?"
"हाँ. कुछ वर्ष पहले मिली थी उसे. हमारी कॉलोनी में ही रहती थी," कहते हुए मैं कुछ हिचकिचा गयी. कैसे कहती कि वह तो मेरी इतनी अच्छी दोस्त थी.
"क्या वह अभी तक कुंवारी है या शादी कर ली?" मैंने कुछ झिझकते हुए पूछा.
" हाँ, हाँ. उसकी शादी तो लगभग छह-सात साल पहले, मुंबई आते ही हो गयी थी. उसका पति एक जाना-माना फाइनेंसियल ऐनलिस्ट है. क्या बन्दा है! बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ उसको अपने यहाँ रखने के लिए जाल डालती रहती हैं. सुना है उसने अमरीका से पढ़ाई की है. वहाँ भी सब उसे रखना चाहते थे पर वह इंडिया वापस लौट आया."
"वाह!! क्या बात है!" मैंने आश्चर्य जताया.
“हाँ! तो और क्या! अच्छा, आपको शायद पता नहीं होगा. उनकी प्रेम-कथा तो बहुत मज़ेदार है. उस बेचारी को ब्रेन ट्यूमर हो गया था और डॉक्टरों ने ऑपरेशन में कुछ तो लापरवाही दिखाई और उसके चेहरे पर लकवा मार गया. उस वक़्त दीपक मतलब उसका होने वाला पति अमरीका गया हुआ था. वह उसे वायदा करके गया था कि लौट कर उस से शादी करेगा. पर दीप्ति को लगा कि वह उससे इस हालत में शादी कदापि नहीं करेगा. उसने बस अपनी ट्रांसफर मुंबई करायी और चली आयी और साथ ही हम सब से वायदा लिया कि अगर वह उसे ढूँढता हुआ ऑफिस आता है तो हम उसे कुछ नहीं बताएँगे," वह मज़े ले-ले कर बोलता जा रहा था.
"अच्छा!! फिर क्या हुआ? " मैं कैसे बताती कि कहानी के यहाँ तक का भाग तो मैं भी जानती हूँ.
"वही हुआ जो दीप्ति ने सोचा था. यू.एस.ए. से लौट कर दीपक उसे ढूँढता हुआ हमारे ऑफिस आ पहुँचा, पर हमने अपने वायदे के अनुसार उसे कुछ नहीं बताया. पर इतने बड़े बैंक में, आप ही बताइये, किसी अफसर की पोस्टिंग भला छिप सकती है क्या? वह बैंक के मानव संसाधन विकास विभाग में गया, फिर कार्मिक विभाग में गया और उसने उसका पता मालूम कर ही लिया."
वह कहानी सुनाये जा रहा था और मेज़ पर बैठे सभी लोग बड़े ध्यान से दीप्ति की प्रेम-कथा सुन रहे थे.
"फिर क्या हुआ? दीपक मुंबई गया क्या?" मैं बेसब्री से कहानी ख़त्म होने का इंतज़ार कर रही थी.
"हाँ गया न! उसने पहली फ्लाइट पकड़ी और मुंबई चल पड़ा," कहानी अब क्लाइमेक्स की ओर तेज़ी से बढ़ रही थी परन्तु उसी समय प्रशिक्षण संस्थान के डायरेक्टर साहब हमारी मेज़ पर आ गये और सभी लोग उनसे बात करने के लिए उठ खड़े हुए. दीप्ति की प्रेम कथा अधूरी ही छूट गयी. लंच के बाद मेरा मन क्लास में बिलकुल न लगा. बार-बार दीप्ति का हँसता-मुस्कुराता चेहरा सामने आ जाता. उस से मिलने की इच्छा बहुत प्रबल हो रही थी. सोचा कि शाम को उसके बैच-मेट से उसका सैलफ़ोन नंबर तो ले ही लूंगीं पर क्लास ख़त्म होने से पहले ही वह निकल गया. शायद उसकी फ्लाइट जल्दी जाने वाली थी.
दिल्ली के लिए मेरी फ्लाइट अगले दिन सुबह थी. मैं रात भर दीप्ति के बारे में सोचती रही. क्या हुआ होगा, कैसे हुआ होगा? काश मैं उससे कभी मिल पाती.
सुबह-सुबह एयरपोर्ट जाते हुए भी मुझे बार-बार दीप्ति का ख्याल सता रहा था, कैसी होगी. पता नहीं ये टेलिपैथी थी अथवा महज़ इत्तेफ़ाक़, पर दीप्ति को अचानक सिक्योरिटी लाउन्ज में देख कर मैं दंग रह गयी. वही पतला-छरहरा बदन, वही कन्धों तक झूलते सीधे लम्बे बाल, वही कैजुअल सी फेडेड जीन्स और उसका फेवरिट लाल-काले चेक का शर्ट जिसकी बाहें उसने हमेशा की तरह कोहनी तक मोड़ रखी थीं. और तो और पैरों में भी वही कोल्हापुरी चप्पल. कुछ भी तो नहीं बदला था उसमें.
दीप्ति एक नटखट बच्चे के पीछे दौड़ रही थी और वह बच्चा मेरी ओर ही आ रहा था. मैंने आगे बढ़ कर बच्चे को पकड़ लिया तो दीप्ति ने भी मेरी ओर नज़र उठाई. एक हाथ से बच्चे को पकड़, दूसरा हाथ उसने मेरे गले में डाल दिया, “रंजना, ओ रंजना! कितने साल बाद मिल रहे हैं यार! कहाँ चली गयी थी तू?”
"मैं चली गयी थी? या तू कहीं जा के छिप गयी थी? कितने साल बीत गए और तेरा कुछ अता-पता ही नहीं है. कहाँ गायब हो गयी थी तू? कैसी है?"
सवालों की बौछार तले से निकलना उसे खूब आता था. तुरंत अपनी गलती मान ली,"सॉरी सॉरी माई डिअर फ्रेंड!! मैंने तुझे जान-बूझ कर नहीं बताया था. मुझे लगा कि वह मुझे ढून्ढता हुआ अगर कॉलोनी में आ गया तो तू कहीं उसे मेरा पता न बता दे. मुझे पता है तू नहीं चाहती थी कि मैं उस से दूर भाग जाऊँ."
“फिर दीपक ने तुझे कैसे ढून्ढ लिया? और दीपक को लेकर तेरे सारे डर? उनका क्या हुआ?" आधी कहानी तो मुझे पहले ही पता लग चुकी थी.
“अब मैं तुझे कैसे बताऊँ की वह कितना गुस्सा हुआ कि मैंने उसे अपने ऑपरेशन और बाद में लकवे के बारे में कुछ नहीं बताया था. तीन-चार महीने से कोई बात नहीं होने से वह बहुत परेशान हो गया था. इंडिया लौट कर उसने पहला काम किया कि मेरे पुराने घर गया. वहाँ मेरे बारे में कोई उसे कुछ नहीं बता पाया. अगले दिन वह मेरे दफ्तर गया और वहाँ से मेरा नया पोस्टिंग मालूम कर के सीधा मुंबई मेरे घर पहुँच गया. रात के साढ़े बारह बजे, घंटी की आवाज़ सुन कर पहले तो मैं डर गयी. झाँक कर देखा तो दीपक खड़ा था. दरवाज़ा खोलने के अलावा मेरे पास कोई और चारा नहीं था. पहले तो उसने इतना गुस्सा किया कि मैं उस से क्यों भाग रही थी? फिर मेरे ऑपरेशन के बारे में सारी बातें पूछीं? और जब मैंने उससे कहा कि उसे किसी और से शादी कर लेनी चाहिए तो वह गुस्से से आग बबूला हो गया."
“अच्छा!! क्या बोला?” मैं विस्मय पूर्वक उसे देख रही थी.
“वह कहने लगा, अच्छा अगर मुझे कुछ ऐसा हो जाता तो तुम मुझे छोड़ जातीं? और अगर शादी के बाद ऐसा कुछ हो जाता तो क्या तुम मुझे तलाक़ दे देतीं? पागल लड़की! तुम ऐसा सोच भी कैसे सकती हो कि मैं तुमसे शादी नहीं करूंगा?”
"हम सारी रात बहसते रहे और सुबह उसने कहा, मैं नाश्ता बनाता हूँ, तुम नहा-धोकर तैयार हो जाओ. हम आज ही कोर्ट में शादी करने जा रहे हैं. और ऐसे हमारी शादी हो गयी. "
दीप्ति के चेहरे पर वही हज़ार वॉट बल्ब वाली मुस्कराहट वापस आ गयी थी. मैंने अचानक नोटिस किया कि उसके चेहरे पर लकवे का तो नामो-निशाँ भी नहीं था, ना आँख सिली हुई थी और न ही वह सब छिपाने वाला बड़ा सा काला चश्मा था.
“और वो लकवा? आँख? काला चश्मा?" मुझे समझ नहीं आया कैसे और क्या पूछूं.
“अरे दुनिया में बड़े अजूबे होते हैं. ऐसा ही मेरे साथ हुआ. एक वर्ष बाद मेरे चेहरे का लकवा अपने आप ठीक हो गया. दीपक कहता है उसने मुझे हँसा-हँसा के कटी हुई नर्व को फिर से जोड़ दिया और डॉक्टर कहता है कभी-कभी ऐसा हो जाता है. कहते हैं ना कि सारी बीमारियों का इलाज बस प्यार ही तो है." कह कर दीप्ति बहुत ज़ोर से हँस पड़ी, वही पुरानी संक्रामक हँसी. उसके डिंपल फिर वैसे ही गहरा गये.
अचानक पब्लिक एड्रेस सिस्टम पर उसका नाम पुकारा जाने लगा, "अंतिम कॉल. श्रीमती दीप्ति जोशी, जो अहमदाबाद से मुंबई जा रही हैं, कृपया विमान की ओर तुरंत प्रस्थान करें."
"हे भगवान्!" उसने अपने बेटे का हाथ पकड़ा और तेज़ी से प्रस्थान की ओर भागने लगी.
कुछ कदम जाकर, उसने मुड़ कर देखा, हाथ हिलाया और वहीं से चिल्लाई,"मैं मुंबई जा कर तुझे मैसेज करूंगी. हम फिर मिलेंगें. तेरा फ़ोन नंबर बदला तो नहीं है ना?"
और एक बार फिर दीप्ति भीड़ में गायब हो गयी. मुझे खुशी थी कि उसकी ज़िंदगी का वह दु:खद अध्याय समाप्त हुआ और उसकी ज़िंदगी में एक बार फिर खुशी की लहर आ गयी थी.
वह सामने हवाई जहाज़ की सीढ़ियाँ चढ़ रही थी और मेरी आँखें खुशी से नम हो रहीं थीं. ज़िन्दगी की राह भी कितनी अजीब होती है? हम उसे अपने हिसाब से कितना भी मोड़ने की कोशिश करें, वह हमें अपने अनुसार ही चलाती है. नियति मनुष्य के वश में है या मनुष्य नियति के? पर मैं तो बस यही सोच रही हूँ कि क्या इस बार उसका फ़ोन आएगा?
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(सरिता 26 नवंबर 2020 अंक में प्रकाशित)